Book Title: Sachitra Tirthankar Charitra
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 217
________________ वासुपूज्य ध्वजा महावीर के समवसरण में पहुंचे। जैसे ही भगवान के समक्ष उपस्थित हुए प्रभु ने उनको नाम से सम्बोधित किया-“अग्निभूति ! तुम्हारा ज्येष्ठ बंधु अपने संशय जाल से मुक्त होकर संशयातीत बन गया है। अब तुम भी अपने कर्म-फल विषयक संशय को मिटाओ, जिस प्रकार जीव का अस्तित्व सिद्ध है उसी प्रकार जीव कर्म का कर्ता और फल भोक्ता भी स्वयं ही है।" ___ मन के गुप्त संशय का उद्घाटन होते ही जैसे अग्निभूति के अन्तर कपाट खुल गये। ज्ञान का दर्प चूर-चूर होते ही, श्रद्धा का निर्झर फूट पड़ा। अग्निभूति भी श्रमण महावीर की सर्वज्ञता के समक्ष नतमस्तक हो गये और अपने ५०० शिष्यों के साथ श्रमण महावीर के शिष्य बन गये। वायुभूति भी ५०० शिष्यों के साथ प्रभु महावीर के शिष्य बन गये। महापंडित व्यक्त और आर्य सुधर्मा भी आये और वे भी संशयमुक्त होकर अपने-अपने ५००-५00 छात्र शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षित हो गये। इसी प्रकार मौर्यपुत्र और अकम्पित अपने ३५०-३५० शिष्यों के साथ तथा अचलभ्राता-३00, मेतार्य-३००, प्रभास-३00 शिष्यों के साथ भगवान महावीर के चरणों में दीक्षित हो गये। इस प्रकार प्रथम धर्म देशना में ही भारत के ग्यारह महापंडित अपने ४४00 शिष्यों के साथ भगवान महावीर के शिष्य बन गये। कुम्भ पद्म सरोवर समुद्र धर्मतीर्थ की स्थापना वैशाख शुक्ला एकादशी का यह पवित्र दिवस जैन परम्परा का ऐतिहासिक गरिमा का दिवस माना जाता है। वैशाख शुक्ला दशमी को भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए वह 'कैवल्य-कल्याणक' की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। किन्तु धर्मतीर्थ की स्थापना की दृष्टि से एकादशी का दिन अत्यन्त ही महत्त्व का है। इस प्रथम समवसरण में ही जहाँ भारत के ग्यारह दिग्गज ब्राह्मण विद्वान् अपनी मिथ्या धारणाओं का त्यागकर समता और अहिंसा आधारित श्रमण परम्परा में प्रव्रजित हुए, प्रभु के गणधर बने', वहाँ हजारों-हजार अन्य स्त्री-पुरुष भी प्रभु की देशना सुनकर प्रतिबुद्ध हुए अनेकों ने संयम ग्रहण किया और अनेकों ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। राजकुमारी चन्दनबाला, जिसके हाथों से भगवान महावीर का कठोर अभिग्रह पूर्ण हुआ. था, वह भी इसी पवित्र दिवस की प्रतीक्षा में बैठी थी, जैसे ही उसे सूचना मिली कि भगवान को केवलज्ञान हो गया है, उसका हृदय हिलोरें लेने लगा। वह अति शीघ्रगामी साधनों से अनेक प्रबुद्ध नारियों के साथ भगवान के समवसरण में पहुँची और धर्म उपदेश श्रवणकर भगवान की प्रथम शिष्या बनी। __ शंख, शतक आदि अनेक सम्पन्न और प्रमुख सद्गृहस्थ तथा सुलसा आदि अनेक प्रमुख नारियों ने श्रावक धर्म ग्रहण किया। इस प्रकार मध्यम पावा नगरी के महासेन वन की यह पवित्र भूमि और वैशाख शुक्ला एकादशी का यह शुभ दिन धन्य हो गया। विमान भवन राशि १. जैन परम्परा में तीर्थंकर के बाद गणधर का पद सर्वोत्कृष्ट पद माना गया है। लोकोत्तर ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुणों के "गण" (समूह) को धारण करने के कारण, तथा तीर्थंकर देव के प्रथम प्रवचन को सर्वप्रथम ग्रहण कर उसे सूत्र रूप में गूंथने वाले विशिष्ट ज्ञानी गणधर लब्धियुक्त महापुरुष को "गणधर" कहा जाता है। "गणधर" तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य | निधूम और गण के नायक होते हैं। अग्नि भगवान महावीर : केवली चर्या Bhagavan Mahavir: Kewali Charya Jain Education International 2010_03 For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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