Book Title: Sabha Shrungar
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Nagri Pracharini Sabha Kashi

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Page 7
________________ तेगां कालेणं तेणं समयेणं राया होत्था (एणयो)। गरिणी नाम देवी होत्या (वएणो) । चम्पा नान नयरी होत्या (वरणा) इत्यादि । यहा कोष्ठक में वएणो लिख देने ने राज रानी या नगरी का जो आदर्श वर्णन प्रचलित था उसी को ग्रहण किया जाता था और ग्रन्यों की प्रतिलिपि करते ममय उसे बार बार दोहराने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी । यह प्रथा । कुछ उन प्रकार की थी जिसे वैदिक मन्त्रों का पाठ करते समय गलन्त हा । जाता था। ऋक् प्रातिशास्त्र (१०११६) के अनुसार ऐसे शळों या वाक्यों की नंजा जो कई बार दोहराए जॉब 'नम थी। इस प्रकार के संगठित वर्णन या ममय वाची शब्द पटपाट में छोड़ दिए जाते थे और एक गोल विन्दु से उनका नकेत बना दिया जाता था जिसके कारण उन्हें गलन्त व्हने लगे। किन्तु गलन्त पाठ में उन सत्र शलों को यथावत् दोहराना आवश्यक होता था | श्वेताम्बर जैन आगम अपने वर्णको के लिए प्रसिद्ध है। उन सबका एक अच्छा संग्रह अलग पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाए तो वह भी इस प्रकार के साहित्य की रोचक कडी सिद्ध हागी । देवर्षिगणि क्षमाश्रमण के निर्देशन में जैन श्रागमो का जो सतरण वलभी में तैयार हुआ था और जो इन नमय उपलब्ध है उसमे वर्णकों का दो परिनिष्ठित रूप प्राप्त होता है वह कुछ तो अवश्य ही प्राचीन काल से मूल रूप में आया होगा. किन्तु हमारा अनुनान है कि गुप्त कालीन संस्कृति के समृद्ध वर्णनों की छाप भी उस पर लगी होगी, जैसा नस्कृत त्रिपिटक साहित्य के सकलन के समय भी हुया। सास्कृतिक शब्दावली के विभिन्न स्तरों की छानबीन की दृष्टि से इस प्रकार का अनुसधान उपयोगी हो सम्ता है। वर्णक के लिये ही वर्ण शब्द गुप्तकालीन संस्कृति में प्रयुक्त होने लगा था। 'मूल सास्तिवाद विनय पिटक' के अतर्गत प्रव्रज्याक्त्तु नामक ग्रन्थ में इन शब्द का प्रयोग हुआ है - नृष्टाभिधायी समाणवः तेन तथा तथा मध्यदेशस्य वर्णी भापितो यथा ते नाणका. सर्व एव मध्यदेशगमनोत्सुका. संवृत्ता.३-अर्थात् वह विद्यार्थी वडा नधुरभाषी था। उसने ने जैसे दक्षिणा___ -न व वैदय, ८ नोट श्रान टी वर्गकाल (बर्गलों पर एक टिप्पणी), आल इण्डिया भान्विन कानरेन्स, कागी प्रविगन लेख नाह, भाग २, पृ० ४७२-४७३ । ...जी. जी. काीयत, नन्दन पठ में पलन्नों की ननन्या, ओरियन्टल कानफरन्न, नागपुर मधिवेशन लेबनतह, १०३६ । 3-नन मानिवाट विनय वन्नु, र ३ खण्ट ४, प्रद्रयान्न, पृट १३, गितगत

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