Book Title: Rushidattras
Author(s): Jayvantasuri, Nipuna A Dalal, Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 175
________________ ११० परिशिष्ट श्मशाननुं वर्णन : श्मशानमां शियाळना भयंकर अवाज थाय छे. कायर माणसो डरी जाय छे. कोल्हुनी डाढथी मुडदांना मांस चुथाय छे: वेतालना भय घणो देखाय छे. कोइक ठेकाणे मुडदां बळे छे तेनी दुर्गध आवे छे. कोईक ठेकाणे भूत हाथ ऊंचा करी नाचे छे. कोइ ठेकाणे वीरपुरुपना देहना वे कटका पड्या छे. कोईक ठेकाणे कापालिको विद्या साधे छे. कनकरथ रूखमणीने परणीने ऋषिदत्ताने साथे लइने पोतानी नगरीमां पाछो फरे छे त्यारे डाबी बाजु ऋषिदत्ता ने जमणी बाजु रूखमणी एं वच्चे कनकरथ उत्तम हाथीना स्कंध उपर बेठो छे. आम बे प्रियाथी हाथीनी उपर रति ने प्रीति वच्चे जेम कामदेव शोभे तेम शोभे छे. एना उपर सुधानी धाराथी अभिवृद्धि थाय छे. लज्जा अने श्री वच्चे जेम कोइ शोभे तेम ते शोभे छे, गंगा अने सिंधु वच्चे मध्यदेश जेवो, उत्तरकुरु अने देवकुरु वच्चे सुवर्णना मेरु पर्वत जेवो, सीतानदी अने सीतोदा वच्चे महाविदेह शोभे, दर्शन अने ज्ञान वच्चे कोई - मोक्षगामी जीव शोभे तेम ते शोभे छे. ऋषिदत्ताना शयनगृहनु वर्णन : बहु किंमती, विशिष्ट प्रकारना अने बराबर मजबूत लाकडाथी बनावेलुं एनुं वासभवन छे. सुन्दर वस्त्रना चन्दरवा बांधेला छे. भीतो पर पंचरंगनी भातोवाळां चित्रो लटकावेलां छे. धूपसळीनी सुगन्धथी घर सुगन्धित बन्युं छे. तांबुल-पुष्प वगेरे भोगसामग्री छे. जेनु कोमल ओशीकुं गंगानदीना कांठानी रेती जेवु सुंवाळु छे, एवी सुवाळी शय्यामां ऋषिदत्ता सूए छे. धर्मनु व आ संसार इन्द्रजाळ जेवो छे. पिता-माता, पुत्र, बळ ने राज्य सर्व क्षणभंगुर छे. विषयमां मोहित थयेला माणसो धर्मर्नु आचरण करता नथी. जे प्रमाणे मृगो झांझवाना नीरने पाणी मानी एनी पाछळ भम्या करे छे तेवीज रीते माणसो संसारनी मोहजाळमां फसाई भवमां भम्या करे छे. किंपाकनु फळ देखावमा सुन्दर होय छे परन्तु स्वादमां कडवं होय छे, ते ज रीते विषयो शरुआतमां मधुर परन्तु परिणामे भयानक होय छे. जे रीते बिलाडो दूधने ज जए छे परन्तु पासे लाकडी लईने उभेलाने जोती नथी तेम मनुष्य विषयसुखने ज जु) छे भविष्यना दुःखशल्यने जोतो नथी. पांच इन्द्रिय होवी ते मनुष्यभवमा उत्तम छे अने सारा कुळमां जन्मीने साधुसमागम थवो ते वधारे उत्तम छे. हे भव्य जीवो ! आ बधा गुणो मेळववा दुर्लभ छे. माटे जिनधर्ममां उद्यत थाओ. संसारमा जीवो आठ प्रकारनां कर्मथी भमे छे. आयुष्य, नाम, गोत्र, वेदनीय, अंतराय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने मोहनीय कर्म. इच्छाओने मर्यादामा राखवी जोईए. हिंसा, परिग्रह, मांसाहार-आ बधा नरकनां कारणो छे. ओ नरकमां तेत्रीस सागरोपमनुं आयुष्य व्यतीत करवु पडे. त्यांथी नीकळीने तिर्यंचगतिमां जीव जाय. त्यारपछी मनुष्यभव मळे. मनुष्यभवमा मानसिक शुद्धि थई शके. परंतु जे माणसो रागमां मर्थित थयेला होय छे. परलोकथी पराङ्मुख अने बहु ज प्रमादी रागद्वेषथी युक्त होय छे. तेओ भवमा भम्या करे छे. ज्यारे अशेष कर्मना क्षय थाय त्यारे मोक्ष प्राप्त थाय. दुष्ट प्रवृत्ति, अविरति, मिथ्यात्वनो त्याग करो त्यारे समकित प्राप्त थाय. सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रथी अविरतिना नाश थई शके. 'मुक्तावस्थामां अनंतगुणु सुख छे. तमाम कर्मोना नाश थाय छे. जीव केवळज्ञान केवळदर्शन अनुभवे छे. मनुष्य तेमज देवोने जे सुख नथी ते सुख सिद्धने छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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