Book Title: Rushabhdev
Author(s): Mishrilal Jain
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 21
________________ ऋषभदेव यह संसार कितना स्वार्थी है।यहां सम्पत्तिके लिए भाई-भाई के प्राण लेना चाहता है। महान वंश को कलंकित करना चाहता है। धिक्कार है ऐसे संसार को। मैं भी उसी मार्ग पर जाऊंगा जिस पर भगवान ऋषभदेव गए हैं। मैं सम्पूर्ण इच्छाओं को छोड़ रहा हूँ। वस्त्र,आभूषण क्या इस संसार को भी। भैया क्षमा करो। भैया क्षमा करो। चक्रवर्ती पढ़ के अभिमान ने मेरी बुद्धि खराब करदी थी।सकजाओ। 000000000 GOOOO. नहीं भेया। मैनें संसार का दृश्य देख लिया है।मैं दिगम्बर सनयांसी होने का संकल्प ले चुका है। अब शत्रु,मित्र दोनों मुझे समान है। मेरा कोई नहीं है,मैं किसी का भी नहीं हूं। मुझे अकेळे यात्रा करना है। नहीं भैया। पिताश्री ऋषभदेव ने सन्यास ले लिया मेरे निन्यानवे भाई भी सन्यासी हो गए। तुम भी छोड़कर जा रहेहो। मैं अकेला रह जाऊंगा। AAVA OXOXOXOXO 19

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