Book Title: Ritthnemichariu
Author(s): Sayambhu, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 3
________________ कीड़ा और उसमें सब कुछ हार जाना तथा पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास आदि अनेक प्रसंगों का विस्तार से मित्र है। कौरवों ओर पागदोहे यन्त का मानना सजीव बन पड़ा है। ___ कवि ने पद्धडिया छन्द के रूप में ऐसे अनेक पद्यों की रचना की है जिनसे न केवल कवि को जिनधर्म के प्रति भक्ति प्रकट होती है अपितु जिननाम के स्मरण की महिमा का भी पता चलता है। एक पद्य में वे लिखते हैं कि जिनदेव के नाम के स्मरण से मद गल जाता है, अभिमान चूर हो जाता है । सर्प काटता नहीं। जाज्वल्यमान अग्नि भी शान्त हो जाती है। ममुद्र भी स्थान दे देता है। अटवी में जंगली व्याघ्र आदिप्राणी भी नहीं सताते । सभी सांसारिक बन्धन टूट जाते हैं और क्षण भर में ही जीव मुक्ति प्राप्त कर लेता है। जिस जिन के नाम का इतन! माहात्म्प है वह जिन कया है, उसे कैसे पहचाना जाए आदि अनेक प्रश्नों के समाधान हेतु कवि ने एक स्थान पर उल्लेख किया है कि जो देव न रुष्ट होते हैं और न द्वेष करते हैं और जो न मा भी करते वे जिन हैं, जिनपर हैं। रिट्ठणेमिचरिउ' का सम्पूर्ण कथानक तीन काण्डों में विभाजित है—यादव, कुरु और युसकाण्ड । प्रस्तुत कृति की कथावस्तु (तेरह सन्धियों में निबद्ध यादवकाण्ड तक सीमित है । ग्रन्थ के सम्पादव एवं अनुवादक डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन के आकस्मिक निधन के कारण यह कार्य एकाएक बीच में रुक गया। इसके पोष भाग के शीघ्न प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ प्रयलशील है। १६ दिसम्बर, १९८५ -कैलाशचन्द्र शास्त्री

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