Book Title: Rayansehari Kaha evam Jayasi ka Padmavata Author(s): Sudha Khavya Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत कु. सुधा खाव्या जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर प्राकृत कथा साहित्य के इतिहास में जिनहर्षगणि कृत रयणसेहरीकहा का महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण कृति है । उसमें प्रयुक्त प्राकृत भाषा अत्यन्त सरल है। जैसे-जसे इसकी ओर विद्वज्जनों का ध्यान आकर्षित होगा वैसे-वैसे इसका स्वरूप और भी उज्ज्वल होता जाएगा। जिनहर्षगणि ने इस कथारत्न द्वारा पर्व-तिथियों पर व्रतोपवास, पूजा, पौषध इत्यादि करने से क्या फल प्राप्त होता है ? इसका हृदयहारी वर्णन किया है। मूलत: यह एक प्रेम-कथा है । इसमें प्रेम तत्त्व का मार्मिक चित्रण किया गया है। नायक रत्नशेखर नायिका रत्नवती का सौन्दर्य-श्रवण कर उस पर मुग्ध हो जाता है तथा अनेक कठिनाइयों को झेलने के बाद उसे प्राप्त करता है । इस सुन्दर प्रेम-कथा को प्राकृत भाषा में ही नहीं अपितु कई अन्य भाषाओं-जैसे संस्कृत, गुजराती, अपभ्रंश, हिन्दी आदि में भी ग्रहण किया गया है। जायसी कृत पद्मावत इससे बहुत अधिक प्रभावित काव्य है। इन दोनों काव्यों के साम्य को देखकर कई विद्वानों ने रत्नशेखर कथा को पद्मावत का पूर्व रूप माना है। यह मानने वाले प्रमुख विद्वान हैं-डा. रामसिंह तोमर, डा० शम्भूनार्थी सह, डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, डा० हीरालाल जैन, डा० नेमिचन्द शास्त्री५ इत्यादि । इससे स्पष्ट है कि इन दोनों में कई बातों में गहरा सम्बन्ध है । कुछ प्रमुख बिन्दुओं पर इन दोनों ग्रन्थों के साम्य पर विचार किया जा सकता है। १. कथावस्तु की तुलना जिनहर्षगणि ने अपने इस कथा काव्य के लिए लोक-प्रचलित कथानक को चुना है। रत्नशेखर कथा एक ऐसी लोक प्रचलित कथा है जिसे कई भाषाओं के कवियों ने अपनाया है। इसका मूल कथा-बिन्दु है–नायक का नायिका के सौन्दर्य-श्रवण से प्रेम विह्वल होना तथा अनेक बाधाओं को पार कर नायक द्वारा नायिका को प्राप्त करना। इस कथा-बिन्दु के आधार पर जिनहर्षगणि ने बहुत ही सुन्दर कथा लिखी है। हिन्दी का महाकाव्य पद्मावत इससे बहुत प्रभावित है । जायसी ने इसी कथानक को ग्रहण किया है। इस मूल कथावस्तु से सम्बन्धित निम्न बातों की इन दोनों काव्यों में समानता दृष्टिगोचर होती है १. डा० रामसिंह तोमर, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, प्रयाग, १६६४ पृ० २७१ २. राजकुमार शर्मा-जायसी और उनका पद्मावत, पद्म बुक कं०, जयपुर, १६६७, पृ० ४७ ३. डा. गुलाबचन्द्र चौधरी, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान, वाराणसी, १६७६, पृ० ३०७ ४. डा० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, साहित्य परिषद् भोपाल (म०प्र० शासन) १९६२ पृ० १४८ ५. डा० नेमिचन्द शास्त्री, प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, तारा पब्लिकेशन्स, १९६६, पृ० ५११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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