Book Title: Purva Madhyakalin Bharatiya Nyaya evam Dand Vyavastha
Author(s): Zinuk Yadav
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 3
________________ ७६ झिनकू यादव कठोर दण्ड-व्यवस्था थी।' फाहियान के अनुसार उत्तर भारत में मृत्यु-दण्ड नहीं था। चोल और हर्ष के शासन-काल में ऐसे दण्ड की कमी थी ।२ चोरी होने पर राजा द्वारा नगर भर में यह घोषणा करायी जाती थी कि यदि किसी के घर में चोरी का सामान मिलेगा तो उसे शारीरिक दण्ड दिया जायगा तथा उसका सारा धन भी छीन लिया जायगा ।३ पूरे नगर में चोरों का पता लगाया जाता था और अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्त को मृत्युदण्ड दिया जाता था। अपराधी के शरीर में तृण तथा कालिख पोत कर डिमडिम की आवाज के साथ यह घोषणा करते हुए नगर भर में घुमाया जाता था कि इस व्यक्ति को अपने कृत्यों के अनुसार दण्ड दिया जा रहा है। अतः यदि दूसरा व्यक्ति भी ऐसा अपराध करेगा तो उसे भी इसी प्रकार से कठोर दण्ड दिया जायगा और तत्पश्चात् उसे चाण्डाल द्वारा श्मशान भूमि पर ले जाकर मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। अभियुक्त को नगर भर में वाद्य के साथ घोषणा पूर्वक घुमाने का तात्पर्य लोगों को अपराध न करने के लिए भयभीत करना था, ताकि नगर अथवा राज्य में अपराधों की कमी हो तथा लोग राजाज्ञा का पालन करते हुए शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखें। समराइच्चकहा में अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्तों के लिए आठ प्रकार के दण्ड देने का निर्देश है, यथा-खेद प्रकट करना, निषेध, धिक्कारना, डाँटना-फटकारना, संसीमन (किसी सीमा तक बाहर रहने का आदेश ), कारावास, शारीरिक दण्ड और आर्थिक दण्ड देना। सेंध लगाकर चोरी करने वालों का अपराध सिद्ध होने पर राजाज्ञा द्वारा अपराधी को शूली पर लटका कर मृत्यु-दण्ड दिया जाता था ।' छल-कपट तथा धूर्तता करनेवालों को भी मृत्यु-दण्ड दिया जाता था । आचारांगचूणि से पता चलता है कि चोरी करने वाले को कोड़े लगवाये जाते थे अथवा विष्टा भक्षण कराया जाता था।' आदिपुराणकार के अनुसार अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्त को मृत्तिका-भक्षण, विष्टा-भक्षण, मल्लों द्वारा मुक्के से पिटवाना तथा सर्वस्व हरण आदि दण्ड दिये जाते थे। वैदिक काल में भी चोरी को अपराध माना गया है।'' गाय एवं वस्त्र आदि के चोरों को 'तायुस्' कहा गया है।' चोरी के अपराधी को राजा के सामने उपस्थित किया जाता था तथा उन पर चोर के चिह्न लगाने का उल्लेख है ।१२ स्मृतियों में चोरों का पता लगाने के विविध प्रकार बताये गये हैं, यथा-जो व्यक्ति अपने निवास स्थान का पता नहीं बताता, संदेहपूर्ण दृष्टि १. अर्थशास्त्र, 114113, 114116--'अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति ।' २. हरिहरनाथ त्रिपाठी-प्राचीन भारत में राज्य और न्यायपालिका, पृ० 246 । ३. समराइच्चकहा, 2, 111। ४. वही 4, 259-60, 272; 5, 367;6, 523-24, 507-8; 9, 957 । ५. वही, 5, 358। ६. वही 3, 184, 210; 7, 669, 716 । ७. वही, 6, 560-61 । ८. आचारांग चूणि 2, पृ० 65; देखिए-पतंजलि महाभाष्य 5-1-64, 65, 66 । ९. आदिपुराण 461292-93 । १०. ऋग्वेद् 413815; 511515 । ११. वही, 101416; 413815; 611215 ।। १२. वही, 1124114-15; 718615; 517919; 1124112-13 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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