Book Title: Purva Madhyakalin Bharatiya Nyaya evam Dand Vyavastha
Author(s): Zinuk Yadav
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 7
________________ झिनकू यादव उल्लेख है ।" यहाँ मजूमदार ने भी पंचकुल के पाँच सदस्यों का एक बोर्ड माना है, जिनमें से प्रत्येक at पंचकुलिक और उनके मुख्य अधिकारी को महापंचकुलिक बताया है । समराइच्चकहा में पंचकुल को राजा के साथ बैठकर मुकदमों की निगरानी तथा उनके ( पंचकुल ) परामर्श से राजा द्वारा उचित निर्णय देने का उल्लेख है । ३ हर्षचरित भी पता चलता है कि प्रत्येक गांव में पंचकुल संज्ञक पाँच अधिकारी गाँव के करण या कार्यालय के व्यवहार ( न्याय और राजकाज ) चलाते थे । प्रबन्धचिन्तामणि तथा अन्य कथाओं में भी पंचकुल का उल्लेख है । ८० ऊपर के अभिलेखीय तथा साहित्यिक साक्ष्यों से पता चलता है कि पंचकुल का निर्वाचन राजा द्वारा किया जाता था, जो गाँव तथा नगर के मुकदमों की न्यायिक जाँच कर राजा, अमात्य तथा अन्य अधिकारियों के परामर्श से निर्णय भी देते थे । राजपूताना में १२७७ ई० के भीमनाल अभिलेख में पंचकुल के सदस्यों द्वारा एक दान देने का वर्णन है । अभिलेखों के आधार पर यह प्रकट होता है कि पंचकुल मंत्री और गवर्नरों से सम्बन्धित थे तथा कभी-कभी नगर के अधीक्षक भी कार्य करते थे, किन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार उनके ( पंचकुल ) कार्य किसी निश्चित सीमा ( नगर-गाँव अथवा मन्त्री ) तक सीमित न थे । ७ कारणिक पंचकुल की भाँति समराइच्चकहा में अपराधों की न्यायिक जाँच करते हुए कारणिक' का उल्लेख किया गया है । अन्य प्राचीन जैन ग्रंथों में न्यायाधीश के लिए कारणिक अथवा रूप-यक्ष ( पालि में रूप दक्ष ) शब्द का प्रयोग हुआ है ।' रूप-यक्ष को माठर के नीतिशास्त्र और कौडिन्य की दण्डनीति में कुशल होना बताया गया है तथा उसे निर्णय देते समय निष्पक्ष रहने का निर्देश दिया गया है ।" उत्तराध्ययन टीका में" उल्लिखित है कि करकण्डु और किसी ब्राह्मण में एक बाँस के डण्डे को लेकर झगड़ा हो गया । दोनों कारणिक के पास गये । बाँस करकण्डु के श्मशान में उगा था, इसलिए उसे दे दिया गया । बृहत्कल्पभाष्य १३ में भी उल्लिखित है कि अपराधी को राजकुल के कारणिकों के पास ले जाया जाता था और अपराध सिद्ध होने पर घोषणापूर्वक दण्डित किया जाता था । सोमदेव ने कर्णी ( काणिक ) के पाँच प्रकार के कार्य एवं अधिकार गिनाये हैं, यथा १. इपिग्राफिया इंडिका 15, 113-145 1 २. ए० के० मजूमदार - चालुक्याज आफ गुजरात, पृ. २३९ । ३. समराइच्चकहा, 6, 560-31 1 ४. वासुदेवशरण अग्रवाल - हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० 203 1 ५. सिन्धीजैनग्रन्थमाला, 1, पृ० 12, 57, 82 ६. अल्तेकर -- प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पृ० 178 | ७. ए० के० मजूमदार - चालुक्याज आफ गुजरात, पृ० 240 | ८. समराइच्चकहा 4, 271–'नीया पंचउल समीयं पुच्छिया पंचउलिएहि कओ तुम्भेत्ति । तेहि भणियं——सावत्थीओ' । कारणिएहि भणियं कहि गमित्सह त्ति । तेहि भणियं सुसम्म नयरं । कारणिए हिं भणियं किनिमित्त त्ति - कारणिएहि भणियं आथे तुम्हाणां किंचिदविणाजायं 1 ...... ९. जगदीशचन्द्र जैन - जैनागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० 64 । १०. व्यवहार भाष्य, 1 भाग 3, पृ० 132 १२. बृहत्कल्पभाष्य, 11900, 904-5 1 Jain Education International ११. उत्तराध्ययन टीका, 9, पृ० 234 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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