Book Title: Purva Madhyakalin Bharatiya Nyaya evam Dand Vyavastha Author(s): Zinuk Yadav Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 1
________________ पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था ( प्राकृत कथा साहित्य के सन्दर्भ में ) झिनकू यादव प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की संरचना में अभिलेख, मुद्रा, विदेशी यात्रियों के विवरण एवं खुदाई से प्राप्त सामग्रियों के साथ-साथ साहित्यिक स्रोतों का भी अत्यधिक महत्त्व है। प्राचीन भारत में इतिहास लेखन को सुव्यवस्थित परम्परा का अभाव था। ऐसी स्थिति में पुरातत्त्व एवं साहित्य ही भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी के साधन हैं। साहित्यिक स्रोतों में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैनधर्म के आचार्यों ने जिन कथानक एवं घटनाओं का वर्णन किया है, वे निरर्थक नहीं हैं। वे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इतिहास एवं संस्कृति की थाती के रूप में संजोई गई सामग्रियाँ हैं। ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्य की भाँति जैन साहित्य भी बृहद् रूप में लिखा गया । प्रारम्भिक जैन साहित्य तो जैन धर्म में आचार-नियम, संयम-साधना एवं दर्शन आदि का संकलित रूप है, जो आगम साहित्य के रूप में जाना जाता है। जैन आगमों को आधार मानकर डॉ० जगदीश चन्द्र जैन ने 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज' नामक ग्रन्थ की रचना की, जो जैन स्रोतों से प्राचीन भारतीय समाज के विभिन्न पक्षों की जानकारी का महत्त्वपूर्ण साधन है । आगमों की रचना के बाद उन पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य एवं टीकाएँ लिखी गईं । तत्पश्चात् कथा साहित्य एवं पुराणों की रचनाएँ की गई। जैन कथा साहित्य की रचना लगभग छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर १२वीं-१३वीं शताब्दी के बीच में की गई है। प्रस्तुत निबन्ध समराइच्चकहा, कुवलयमालाकहा, कथाकोषप्रकरण, ज्ञानपंचमीकहा एवं कुमारपाल प्रतिबोध से ली गई सामग्रियों पर आधारित है। न्याय-व्यवस्था पूर्व मध्यकालीन प्राकृत कथा साहित्य के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका का प्रमुख अधिकारी राजा स्वयं होता था। आरम्भ में अपराधों की जाँच मन्त्रिगण अथवा अन्य अधिकारी करते थे और तत्पश्चात् मुकदमे राजा को सौंप दिये जाते थे। राजा भी न्यायपालिका के अधिकारियों की सलाह से निर्णय देता था। कभी-कभी नगर के प्रमुख व्यक्ति मिलकर किसी वाद-विवाद सम्बन्धी मामलों पर निर्णय देते थे और निर्णय उभय पक्ष को मान्य होता था । राजाज्ञा के विरुद्ध आचरण करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता था । अपराध करने वाली १. समराइच्चकहा 4, 259; देखिए-मनुस्मृति, 814-7 । २. वही 6,561 । ३. वही 6, 498 । ४. वही 7, 642 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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