Book Title: Puratattva Mimansa Author(s): Jinvijay Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 7
________________ غرف ومطعمه ملامه ععاع قلعیین تعرفها عرعر عرعر عرعر وعده ما را هم در ادامه مرام مغزله 4 आचार्यप्रवर भिसाचार्यप्रवभिन श्रीआनन्दसन्थश्राआनन्दान्५2 - - - MINIKMANYONEY.HYAYOY १६४ इतिहास और संस्कृति एक उदाहरण देता है। इन्दौर में गोरजी नामक एक विद्वान था। उसने शिष्य बनाने के लिए दो लड़कों को पाला-पोसा था। इस गोरजी की मृत्यु के पश्चात् वे छोकरे उसके विशाल पुस्तक भन्डार में से नित्य हजार, दो हजार पत्र ले जाकर हलवाई को दे आते और उनके बदले पाव आध सेर गरमागरम जलेबी का नाश्ता कर आते और मजे उड़ाते । जब मुझे इस बात की खबर हुई तो उस हलवाई के पास जाकर बहुत से पत्ते तलाश किए, जिनमें पांच सौ वर्ष पुराने लिखे हुए दो तीन जैन सूत्र तो मुझे अखण्ड रूप से मिल गए। पाटण के जैन भण्डारों में सिद्धराज कुमारपाल और उनसे भी पहले के लिखे हए ताडपत्रीय ग्रन्थों को तम्बाकू के पत्ते की तरह चूर्ण हुई अवस्था में मैंने अपनी इन चर्मचक्षओं से देखा है। इस प्रकार हम ही लोगों ने अपनी अज्ञानता के कारण हमारे इतिहास के बहुत से साधनों को भ्रष्ट कर डाला है। इतना ही नहीं, पारस्परिक मतान्धता और साम्प्रदायिक असहिष्णुता के विकार के वश होकर भी हमने अपने साहित्य को कई तरह से खंडित और दुषित किया है। शैवों ने वैष्णवों के साहित्य का निकन्दन किया है, वैष्णवों ने जैनों के स्थापत्य को दूषित किया है, दिगम्बरों ने श्वेताम्बरों के लेखों को खंडित किया है तथा 'लोंको' ने 'तपाओं' की नोंध को बिगाड़ डाला है। इस प्रकार एक दूसरे ने एक दूसरे को बहुत नष्ट किया है। शोध-खोज के वृत्तान्तों में ऐसे अनेक उदाहरण देखने में में आते हैं । अन्त में, मुसलमान भाइयों ने हिन्दुओं के स्वर्गीय भवनों को तोड़-फोड़कर मैदान कर दिया है और उनके पवित्र धामों के लेखों को जमींदोज कर दिया है। ऐसी संकटापन्न परम्पराओं में भी जो बच रहे उनको सुरक्षित रखने के लिए, जो अर्द्ध मत अवस्था में थे, उनसे कुछ जान लेने के लिए और विस्मति और अज्ञानता की सतह के नीचे सजड दबे हुए भारत के अतीत काल का उन्हीं के द्वारा उद्धार करने के लिए उपरिवणित एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई थी। इस सोसाइटी की स्थापना के दिन से ही हिन्दुस्तान के ऐतिहासिक अज्ञानान्धकार का धीरे-धीरे लोप होने लगा। इस संस्था के उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त अनेक अंग्रेज विभिन्न विषयों का अध्ययन करने लगे और उन पर लेख लिखने लगे । इन लेखों को प्रकट करने के लिए 'एशियाटिक रिसर्चेज' नामक ग्रन्थमाला प्रकाशित की गई । सन १७८८ में इस माला का प्रथम भाग प्रकाश में आया । सन् १७६७ ई. तक इसके पाँच भाग प्रकाशित हुए। सन् १७९८ ई० में इसका एक नवीन संस्करण चोरी से इंग्लैण्ड में छपाया गया। उससे इन भागों की इतनी मांग बढ़ी कि ५-६ वर्षों में ही उनकी दो-दो आवृत्तियाँ प्रकाशित हो गई और एम०ए० लॅबॉम नामक एक फ्रेन्च विद्वान ने 'रिसर्चेज एशियाटिक्स' नाम से उनका फ्रेञ्च अनवाद भी प्रकट कर दिया। सोसाइटी की इस ग्रन्थमाला में दूसरे विद्वानों के साथ-साथ सर विलियम जेम्स ने हिन्दुस्तान के इतिहास सम्बन्धी अनेक उपयोगी लेख लिखे हैं। सबसे पहले उन्हीं ने अपने लेख में यह बात प्रकट की थी कि मेगस्थनीज द्वारा उल्लिखित सांड्रोकोटस और चन्द्रगुप्त मौर्य ये दोनों एक ही व्यक्ति थे, पाटलीपूत्र का अपभ्रष्ट रूप पालीब्रोथा है और उसी का आधुनिक नाम पटना है। कारण कि, पटना के पास में बहने वाला सोननद हिरण्यबाह कहलाता है और मेगस्थनीज का 'एरोनोवाओं हो हिरण्यबाह का अपभ्रष्ट रूप है। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का समय सबसे पहले जेम्स साहब ही ने निश्चय किया था। सबसे पहले संस्कृत भाषा सीखने वाले अंग्रेज का नाम चार्ल्स विल्किन्स था। उसी ने सर्व प्रथम , देवनागरी और बंगाली टाइप बनाए थे । बदाल के पास वाला लेख सबसे प्रथम इसी ने खोदकर Sal Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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