Book Title: Puratattva Mimansa
Author(s): Jinvijay
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 5
________________ आचार्य प्रव श्री आनन्द www 194 你说 प्रवल अभिनंदन Jain Education International अमन्दप्रामानन्द क १६२ इतिहास और संस्कृति लिए और फिर तुरन्त १७७४ ई० में नवाब को सम्पूर्णतः पदच्युत करके अपना गवर्नर जनरल नियुक्त कर दिया । अँग्रेजों के लिए अब यह स्वाभाविक ही था कि वे इस देश के धर्म, समाज आदि का ज्ञान प्राप्त करें। जिस देश के साथ व्यापार करके उन्होंने करोड़ों ही नहीं अरबों रुपये कमाये, और हजारों ही नहीं लाखों वर्ग मील भूमि पर अधिकार प्राप्त किया उसी देश की अमूल्य ज्ञान सम्पत्ति प्राप्त करने के प्रशस्त लोभ ने भी कितने ही विद्वान अँग्रेजों को घेर लिया। कम्पनी की ओर से जो विद्या प्रेमी अँग्रेज भारत का शासन कार्य चलाने के लिए नियुक्त किये जाते थे प्रायः वे ही इस कार्य में अग्रसर बनते थे । बाद में तो फ्रांस और जर्मनी के विद्वानों ने भी भारतीय पुरातत्त्व में बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किये और भारतीय साहित्य की बड़ी-बड़ी सेवाएँ कीं परन्तु इस कार्य में पहल करने का श्रेय तो अँग्रेजों को ही है । सबसे पहले सर विलियम जेम्स ने इस मंगलमय कार्य का आरम्भ किया था आर्य साहित्य के संशोधन कार्य के साथ सर जेम्स का नाम सदैव जुड़ा रहेगा । सर जेम्स को भारतीय लोग म्लेच्छ मानते थे इसलिए संस्कृत भाषा सीखने में उनको बहुत सी अड़चनें आईं। ब्राह्मणों की कट्टरता के कारण उनको अपना संस्कृत अध्ययन चालू रखने में जो जो कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी उनका मनोरंजक वर्णन उन्होंने अपने जीवन वृत्तान्त में लिखा है । अन्त में, वे इन कठिनाइयों को पार कर गये और अपेक्षित संस्कृत ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने तुरन्त ही शाकुन्तल और मनुस्मृति का अँग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया । इस अनुवाद को देखकर यूरोपीय विद्वानों में भारतीय सभ्यता का ज्ञान प्राप्त करने की उत्कट जिज्ञासा उत्पन्न हुई । जो प्रजा ऐसे उत्कृष्ट साहित्य का निर्माण कर सकती है उसका अतीत काल कितना भव्य रहा होगा, यह जानने की आकांक्षा उनमें जाग उठी । सन् १७७४ के जनवरी मास की पन्द्रहवीं तारीख को तत्कालीन गवर्नर जनरल वॉरन हेस्टिङ्गज की सहायता से एशिया खण्ड ( महाद्वीप) के इतिहास, साहित्य, स्थापत्य, धर्म, समाज, विज्ञान आदि विशिष्ट विषयों की शोध-खोज करने के लिए सर विलियम जेम्स ने एशियाटिक सोसाइटी नामक संस्था की शुभ स्थापना की । इस संस्था के साथ ही भारत के इतिहास के अन्वेषण का युग आरम्भ हुआ, यह हमको उपकृत होते हुए स्पष्टतया स्वीकार करना चाहिए । इससे पहले हमारा इतिहास विषयक ज्ञान कितना अल्प और सामान्य था, यह एक भोज प्रबन्ध जैसे लोकप्रिय निबन्ध को पढ़ने से ही ज्ञात हो जाता । इस प्रबन्ध में भोज से अनेक शताब्दियों पूर्व भिन्न-भिन्न समयों में होने वाले, कालिदास, बाण, माघ आदि कवियों का भोज के दरबारी कवियों की रीति से वर्णन करते हुए उन्हें एक ही साथ ला बैठाया गया है । सिन्धुराज वाक्पतिराज की मृत्यु के पश्चात् राज्य का स्वामी बना था ; इसके बदले इस प्रबन्धकार ने वाक्पतिराज को सिन्धु राज की गद्दी पर बैठाकर पिता को पुत्र बना डाला है । जब भोज जैसे प्रसिद्ध राजा के इतिहास लेखक को ही उसके वंश एवं समय के विषय में ऐसी अज्ञानता थी तो फिर सर्व साधारण की बेजानकारी के लिए तो कहा ही क्या जा सकता है ? अशोक जैसे प्रतापी सम्राट की तो लोगों को सामान्य कल्पना भी नहीं थी । यद्यपि हिन्दुस्तान की इतिहास सम्बन्धी बहुत सी पुस्तकें व अन्य साधन मुसलमानों के समय में नष्ट हो गये थे परन्तु फिर भी बौद्धकालीन अनेक स्तूप, स्तम्भ, मन्दिर, गुफाएँ, जलाशय आदि स्थान, धातु और पाषाण निर्मित देवी देवताओं की मूर्तियाँ और दरवाजों, शिलाओं व ताम्रपत्रों इत्यादि पर उत्कीर्ण असंख्य लेख तो जो इतिहास के सच्चे और मुख्य साधन समझे जाते हैं, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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