Book Title: Puratattva Mimansa
Author(s): Jinvijay
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 16
________________ पुरातत्त्व मीमांसा १७३ NATUR अब तक इतना कार्य विद्वानों ने अपनी ही ओर से शोध-खोज करके किया था, सरकार की ओर से इस विषय में कोई विशेष प्रबन्ध नहीं हुआ था। परन्तु यह कार्य इतना बड़ा महाभारत है कि सरकार की सहायता के बिना इसका पूरा होना अशक्य है । सन् १८४४ ई० में लन्दन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से प्रार्थना की कि सरकार को इस कार्य में सहायता करनी चाहिए। अतः सन् १८४७ ई० में लार्ड हाडिज के प्रस्ताव पर बोर्ड आफ डायरेक्टर्स ने इस कार्य के लिए खर्चा देने की स्वीकृति दे दी ; परन्तु १८५० ई० तक इसका कोई वास्तविक परिणाम नहीं निकला । सन् १८५१ ई० में संयुक्त प्रान्त के चीफ एन्जीनियर कर्नल कनिङ्घम ने एक योजना तैयार करके सरकार के पास भेजी और यह भी सूचना दी कि यदि गवर्नमेंट इस कार्य की ओर ध्यान नहीं देगी तो जर्मन और फ्रेञ्च लोग इस कार्य को हथिया लेंगे और इससे अंग्रेजों के यश की हानि होगी। कर्नल कनिङ्कम की इस सूचना के अनुसार गवर्नर जनरल की सिफारिश से १८५२ ई० में ऑकियॉलॉजिकल सर्वे नामक विभाग स्थापित किया गया और कर्नल कनिङ्कम ही इस विभाग का नियमन करने के लिए, २५० रु० मासिक अतिरिक्त वेतन पर, डाइरेक्टर नियुक्त हुए। यह एक अस्थायी योजना थी। सरकार की यह धारणा थी कि बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण स्थानों का यथातथ्य वर्णन, तत्सम्बन्धी इतिहास एवं किम्बदन्तियों आदि का संग्रह किया जावे । नौ वर्षों तक सरकार की यह नीति चालू रही और तदनुसार कनिङ्कम साहब ने भी। अपनी नौ रिपोर्ट प्रकाशित की। सन् १८७१ ई० से सरकार की इस धारणा में कुछ फेरफार हुआ । कनिङ्कम की रिपोर्टों से सरकार को यह लगा कि सम्पूर्ण हिन्दुस्तान महत्त्वपूर्ण स्थानों से भरा पड़ा है और उनकी विशेष रूप से शोध-खोज होने की आवश्यकता है । अतः समस्त भारत की शोध-खोज करने के लिए कनिङ्घम साहब को डायरेक्टर जनरल बनाकर उनकी सहायता करने के लिए अन्य विद्वानों को नियुक्त किया गया । परन्तु १८७४ ई० तक कनिङ्घम साहब उत्तरी हिन्दुस्तान में ही काम करते रहे इसलिए उसी वर्ष दक्षिणी भाग की गवेषणा करने के लिए डॉक्टर वर्जेस की नियुक्ति की गई। इस विभाग का कार्य केवल प्राचीन स्थानों की शोध करने का था और उनके संरक्षण का कार्य प्रान्तीय सरकारों के आधीन था, परन्तु इन सरकारों द्वारा इस ओर पूरा ध्यान न देने के कारण उचित संरक्षण के अभाव में कितने ही प्राचीन स्थान नष्ट होने लग गये थे। इस दुर्दशा को देखकर लार्ड लिटन ने १८७८ ई० में "क्यूरेटर ऑफ एनश्यण्ट मॉन्यूमण्टस्" नामक पद पर एक नवीन अधिकारी की नियुक्ति करने का विचार किया। उस अधिकारी के लिए प्रत्येक प्रान्त के संरक्षणीय स्थानों की सूची बनाकर उनमें से कौन-कौन से स्थान मरम्मत करने लायक तो नहीं परन्तु पूर्ण रूपेण नष्ट नहीं हुए हैं और कौन-कौन से स्थान पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं इत्यादि बातों का विवरण तैयार करने का कार्य निश्चित किया गया, इस योजना के अनुमार 'सेक्रेटरी आफ स्टेट' को लिखा गया परन्तु उन्होंने लार्ड लिटन के प्रस्ताव को अस्वीकरके यह मार डायरेक्टर जनरल के ही ऊपर डाल देने के लिए लिखा। परन्तु १८८० ई० में भारत सरकार ने भारत मंत्री को फिर लिखा कि डायरेक्टर जनरल को इस कार्य के लिए अवकाश नहीं मिलता है और दूसरे प्रबन्ध के बिना बहुत से महत्व के स्थान नष्ट होते जा रहे हैं । तब १८८१ ई० से १८८३ ई० तक मेजर कोल आ० ई० की नियुक्ति क्यूरेटर के पद पर हई और उन्होंने इन तीन वर्षों में "प्रीज aanadaanasantANA आचार्यप्रवर अभिशापार्यप्रवर आभः श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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