Book Title: Puratan Jain Vakya Suchi 01 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ 7 पुरातन जैन चास्य सूची लेखनी से लिखा जाय तो वह साहित्य और इतिहासकी एक खास चीज होगी, परन्तु उसके लिखने योग्य चित्तकी स्थिरता और निराकुलतामें बराबर बाबा पडती रही, सस्थाके प्रबन्धादिककी चिन्ताएँ भी सताती रही और मोहवश लिखनेके उस विचारको छोडा भी नहीं जा सका । इस तरह अथवा इन्हीं सब कारणो के वश प्रस्तावनाका मेरे द्वारा लिखा जाना बराबर टलता रहा, फलतः ग्रन्थका प्रकाशन भी टलता रहा और इससे ग्रन्थावलोकनके लिये उत्सुक विद्वानोकी इच्छा में बराबर व्याघात पडता रहा और उन लोगोको तो बहुत ही बुरा मालूम हुआ जिन्होने ग्रंथके शीघ्र प्रकाशित होनेकी सूचना पाकर मूल्य पेशगी भेज दिया। उनमें से कुछ के धैर्यका तो बांध ही टूट गया और उन्होने सख्त ताकीदी पत्र लिखे, उलहने तथा आरोपोंके रूपमें अपना रोप व्यक्त किया और दो-एक ने अपना मूल्य भी वापिस भेज देने के लिये बाध्य किया जो अन्तको उन्हें वापिस भेज दिया गया । ग्राहको के इस रोप पर मुझे जरा भी क्षोभ नहीं हुआ, क्योंकि मैं इसमे उनका कोई दोष नहीं देखता था - आखिर धैर्यकी भी कोई सीमा होती है, फिर भी मैं उनकी तत्काल इच्छापूर्ति करनेमे असमर्थ था - अपनी परिस्थितियो के कारण मजबूर था। हॉ, एक दो बार मैंने यह जरूर चाहा है कि अपनी संस्थाके विद्वानोमे से कोई विद्वान इस प्रस्तावनाको जैसे तैसे लिख दे, जिससे ग्रथ जल्दी प्रकाशित होकर झगड़ा मिटे परन्तु किसीने भी अपने को उसके लिये प्रस्तुत नहीं किया- मुझे ही उसको लिखनेकी बराबर प्ररेणा की जाती रही । डाक्टर ए० एन० उपाध्येने अपनी अग्रेजी भूमिका ( Introduction ) तो मई सन् १९४५ में ही लिख कर भेज दी थी। I आखिर अक्तूबर सन् १६४६ के अन्त मे प्रस्तावनाका लिखना प्रारम्भ हुआ । उसके प्रथम तीन प्रकरण और अन्तका पाँचवा प्रकरणतो ७ नवम्बर सन् १६४६ को ही लिखकर समाप्त हो गये थे, परन्तु 'ग्रन्थ और ग्रन्थकार' नामक चोथा महाप्रकरण कुछ और बादमें— सभवतः सन् १९४७ के शुरू में - लिखा जाना प्रारम्भ हुआ और उसे समय, स्वास्थ्य, शक्ति और परिस्थिति आदिकी जैसी कुछ अनुकूलता मिली उसके अनुसार वह वराबर लिखा जाता रहा है । जब प्रस्तावनाका अधिकांश भाग लिखा जा चुका तब उसे शुरू जनवरी सन् १९४८ को प्रेसमें दिया गया और छापकर देनेके लिये अधिकसे अधिक तीन महीनेका वादा लिया गया, परन्तु प्रेसने अपनी उसी बेढंगी चाल से चलकर प्रस्तावना के १३२ पेजोके छापनेमे ही पूरा साल गाल दिया । और आगे को अपनी कुछ परिस्थितियोंके वश छापनेसे साफ जवाब दे दिया । तब प्रस्तावना के शेष ३७ पेजोको रायल प्रिंटिंग प्रेस सहारनपुर में छपाया गया। इसके बाद दूसरी अनेक परिस्थितियोके वश अवशिष्ट छपाईका काम फिर कुछ समय के लिये टल गया और वह अन्तको देहलीके रामा प्रिटिंग प्रेस द्वारा पूरा किया गया है । इस प्रकार यह इस ग्रन्थके अतिविलम्ब अथवा आशातीत विलम्ब से प्रकाशित होने की कहानी है, जिसका प्रधान जिम्मेदार इन पंक्तियो का लेखक ही है - वह प्रस्तावनाको जल्दी लिखकर नहीं दे सका और न अन्यत्र किसी ऐसे प्रेसका प्रबन्ध ही कर रूका है जो शीघ्र छापकर दे सके, और यह एक ऐसा अपराध है जिसके लिये वह अपनेको क्षमा-याचनाका * डाक्टर ए० एन० उपाध्येजी एम० ए० कोल्हापुर प० नाथूरामजी प्रेमी बम्बई और प० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य बनारसने तो ग्रन्थ के छपे फार्मोको मॅगाकर समयपर अपनी तत्कालीन इच्छा तथा श्रावश्यकताकी पूर्ति करली थी ।Page Navigation
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