Book Title: Punya Purush
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 273
________________ २५८ पुण्यपुरुष भीषण पाप मैंने किये हैं। अब तो नरक-गति के सिवाय मेरी अन्य क्या गति हो सकती है ? मैं इतना वृद्ध होकर भी राज्यलोभ से चिपटा रहा और यह बालक-मेरे लिए तो बालक ही है-कितना उदार है, कितना महान है, कैसा देवोपम इसका व्यवहार है ! सोचते-सोचते उन्होंने निश्चय किया-पापों की इस गठरी को अपने सिर से उतार फेंकना होगा। पापों से मुक्ति का एक मात्र उपाय जिनराज की प्रव्रज्या ग्रहण करना ही है। आत्मा का कर्म-मल इसी उपाय से दूर हो सकता। यही मुक्ति का एक मात्र प्रशस्त पन्थ है। महाराज अजितसेन के मन में इस प्रकार के उच्च विचार उत्पन्न हुए और उनकी मोह-मदिरा का नशा काफूर हो गया। अशुभ भावनाएँ नष्ट हो गईं, शुभ भावनाओं का उदय हुआ तथा परिणामतः पाप-स्थिति नष्ट हो गई। कर्म ने सहायता पहुँचाई और तुरन्त ही उन्हें अपने पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। वे महाराज अजितसेन के स्थान पर उसी क्षण महामुनि अजितसेन बन गये। उसी समय श्रीपाल महाराज तथा अन्य उपस्थित जन के समक्ष गार्हस्थ्य का त्याग कर उन्होंने चारित्र अंगीकार कर लिया। महामुनि अजितसेन ने महाराज अजितसेन की पराजय में से विजय का अमृत शोध लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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