Book Title: Punya Purush
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 284
________________ पुण्यपुरुष २६९ रखना चाहिए। ऐसा करने से कालान्तर में इन्हें अपने पाप से मुक्ति मिल सकेगी।" इस प्रकार की आराधना की सम्पूर्ण विधि का निर्देश करके मुनिराज वहाँ से चले गये। राजा-रानी ने मुनिवर द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण किया। नवपद की आराधना तथा अन्य प्रकार का तप किया। रानी की आठ सखियों तथा राजा के सात सौ सेवकों ने भी इस तपश्चर्या में भाग लिया। ऐसा करने से उन सभी के हृदय को शान्ति प्राप्त हुई। कुछ समय और व्यतीत हुआ। एक बार उस राजा श्रीकान्त ने अपने पड़ोसी राजा सिंह पर अपने सात सौ सेवकों के साथ आक्रमण कर दिया। उसकी नगरी का कुछ भाग लूट लिया तथा गायों के एक समूह पर भी अधिकार कर लिया। यह सूचना मिलते ही राजा सिंह भी शेर की तरह श्रीकान्त राजा पर टूट पड़ा। उसने उसके सात सेवकों को मृत्यु के घाट उतार दिया तथा अपनी सम्पत्ति तथा गायों को पुनः अपने अधिकार में कर लिया। राजा श्रीकान्त किसी प्रकार अपने प्राण बचाकर भाग निकला। ___"हे राजन् ! इस प्रकार उस राजा श्रीकान्त के वे सात सौ सेवक इस जन्म में क्षत्रिय हुए, किन्तु विगत जन्म में मुनिवर को सताने के कारण वे कोढ़ी हो गये। श्रीकान्त राजा का भी जब शरीरान्त हुआ तब वह अन्य पुण्यों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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