Book Title: Punya Purush
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 283
________________ २६८ पुण्यपुरुष उसी समय यह दृश्य रानी ने देख लिया और जब उसे यह पता चला कि यह सब राजा की ही आज्ञा से किया जा रहा है तो वह तुरन्त राजा के पास आई और बोली"नाथ ! आखिर आपको हो क्या गया है ? अभी उस दिन आपने प्रतिज्ञा की थी कि ऐसा कुकर्म फिर कभी नहीं करेंगे और आज फिर आप इन मुनि के साथ ऐसा दुर्व्यवहार कर रहे हैं ? ठीक है, जब आपको नरक में ही जाना है तो कोई आपको रोक भी कैसे सकता है ?" रानी द्वारा इस प्रकार राजा की भर्त्सना किये जाने पर उसे अपनी भूल का विचार आया। उसे खेद भी हुआ। उसने तुरन्त अपने सेवकों को भेजकर मुनिवर को आदरपूर्वक महल में बुलवाया और उनसे क्षमा-याचना की। रानी ने भी मुनिवर से कहा___"पूज्य मुनिवर ! मेरे पति अज्ञानी हैं । इनसे अपराध हुआ है। इन्हें क्षमा कीजिए तथा साथ ही कुछ ऐसा उपाय बताइये कि इनके पापों का प्रायश्चित्त हो सके।" मुनिवर शान्त थे। सुख-दुख में समभाव धारण करने वाले थे। प्रत्येक प्राणी पर उनके हृदय में प्रेम तथा दया का सागर लहराता था। उन्होंने शांत स्वर में कहा "हे भद्र ! राजा ने पाप तो भयंकर किया है। इससे छुटकारा सरलता से अथवा एकाएक तो नहीं मिल सकता। किन्तु फिर भी यदि इन्हें पश्चात्ताप है, तो इन्हें नवपद की आराधना करनी चाहिए। आयम्बिल व्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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