Book Title: Punya Purush
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 279
________________ २६४ पुण्य पुरुष त्यागकर श्रद्धापूर्वक गुरु के द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलना चाहिए। जो लोग इस प्रकार गुरु के द्वारा बताये हुए आगम प्रमाण एवं अनुमान प्रमाण से ध्यानपूर्वक गवेषणा करते हैं, उन्हीं को तत्त्वबोध की प्राप्ति होती है । " अतएव, हे भव्य प्राणियो ! समय रहते प्रमाद का त्याग कर दो और प्रत्येक पल, प्रत्येक घड़ी जिनप्रभु का स्मरण करते हुए धर्म में लीन हो जाओ। इस संसार - सागर से पार उतरने का केवल यही मार्ग है । अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप - यह नवपद ही भक्ति के वास्तविक साधन हैं । इन नवपदों के ध्यान से आत्मरूप प्रकट होता है, और जिने आत्मदर्शन प्राप्त हो जाता हैं। उसके लिए संसार स्वयं ही मर्यादित हो जाता है । "भव्य प्राणियो ! दर्शन शब्द में सम्यक्त्व की प्रधानता तो है ही, उसमें ज्ञान की भी प्रधानता है। एक ज्ञानी प्राणी अर्धक्षण में ही जितने पापों का क्षय कर सकता है, अज्ञानी प्राणी करोड़ों वर्ष पर्यन्त तप करके भी उतने कर्मों का क्षय नहीं कर सकता । " हे भव्य जनो ! मोक्ष प्राप्ति में सम्यक्त्व और ज्ञान की जितनी आवश्यकता बतलाई गई है, उतनी ही आवश्यकता शुद्ध चारित्र की भी है । अतः हे भव्य प्राणियो ! सम्यक ज्ञान - दर्शन - चारित्र को आधार बनाकर अपने जीवन को ऊपर उठाओ और मुक्ति के अधिकारी बनो । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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