Book Title: Punya Purush
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 280
________________ पुण्यपुरुष २६५ इतना कहकर राजर्षि अजितसेन मौन हो गये तब श्रीपाल महाराज ने हाथ जोड़कर उनसे विनय की “पूज्य गुरुदेव ! आपकी अमृत वाणी सुनकर हम धन्य हुए। अब यदि आपको असाता न हो तो कृपया यह बताने का कप्ट करें कि बाल्यावस्था में मुझे किस कर्म के उदय के कारण कुष्ठ रोग हुआ, और फिर किस शुभ कर्म के उदय से वह नष्ट हो गया ? किन कर्मों के कारण स्थानस्थान पर ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति हुई ? किस कारण से मैं समुद्र में गिरा? किस कारण से मुझे भांड़ होने का कलंक लगा? और फिर किस कर्म से मेरी ये सारी विपत्तियाँ दूर हो गई ? भगवन ! आप दयालु हैं, परोपकारी हैं, त्रिकालज्ञा हैं । कृपया यह रहस्य मुझे बतलाइए, जिससे स्वयं मैं तथा अन्य जन भविष्य में अधिक सावधान रह सकें।" श्रीपाल महाराज की यह प्रार्थना सुनकर राजर्षि ने क्षणभर अपने कमल-नेत्र बन्द किये और फिर बोले- . "हे श्रीपाल ! प्राणी कभी अपने कर्मों से बच नहीं सकता । इस जन्म के कर्मों का परिणाम उसे दूसरे जन्मों में भोगना पड़ता है। अतः अशुभ कर्मों के विपाक से डरने वाले प्राणी को अशुभ कर्म करने ही नहीं चाहिए । इस संसार में जो भी दुख-सुख प्राप्त होता है, वह सब पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का ही परिणाम होता है। राजा हो या रंक कोई भी इस चक्र से बच नहीं सकता। अतः पूर्वसंचित कर्मों को सम्यक् भाव से सहन करना चाहिए तथा नये अशुभ कर्म नहीं करने चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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