Book Title: Punchaastikaai Sangrah Author(s): Kundkundacharya, Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust View full book textPage 6
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ७ श्री सद्गुरुदेव-स्तुति [ हरिगीत] संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली, ज्ञानी सुकानी मळया बिना ओ नाव पण तारे नहीं; आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो, मुज पुण्यराशि फळयो अहो! गुरु कहान तुं नाविक मळयो। [अनुष्टुप] अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना! बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां। [शिखरिणी] सा दृष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे, अने ज्ञप्तिमाही दरव-गुण-पर्याय विलसे; निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे, निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे। [ शार्दूलविक्रीडित] हैयुं 'सत सत, ज्ञान ज्ञान' धबके ने वज्रवाणी छूटे, जे वजे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे; -रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां, टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा। [वसंततिलका] नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं, करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं। [स्रग्धरा] ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती, वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली; भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी, खोयेलुं रत्न पामुं, – मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाली! 'tch vidh icy top Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.comPage Navigation
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