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७ श्री सद्गुरुदेव-स्तुति
[ हरिगीत] संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली, ज्ञानी सुकानी मळया बिना ओ नाव पण तारे नहीं; आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो, मुज पुण्यराशि फळयो अहो! गुरु कहान तुं नाविक मळयो।
[अनुष्टुप] अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना! बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां।
[शिखरिणी] सा दृष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे, अने ज्ञप्तिमाही दरव-गुण-पर्याय विलसे; निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे, निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे।
[ शार्दूलविक्रीडित] हैयुं 'सत सत, ज्ञान ज्ञान' धबके ने वज्रवाणी छूटे, जे वजे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे; -रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां, टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा।
[वसंततिलका] नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं, करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं।
[स्रग्धरा] ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती, वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली; भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी, खोयेलुं रत्न पामुं, – मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाली!
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