Book Title: Punchaastikaai Sangrah
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 12
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव विक्रम संवतके प्रारम्भमे हुए हैं। दिगम्बर जैन परम्परामें भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है। ‘मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुंदकुंदार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलंम्।।'- यह श्लोक प्रत्येक दिगम्बर जैन शास्त्रपठनके प्रारम्भमें मंगलाचरणरूपसे बोलता है। इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामी और गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीके पश्चात् तुर्त ही भगवान कुंदकुंदाचार्यका स्थान आता है। दिगम्बर जैन साधु अपनेको कुंदकुंदाचार्यकी परम्पराका कहलानेमें गौरव मानते हैं। भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचनों जितने ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके पश्चात् होनेवाले ग्रंथकार आचार्य अपने किसी कथनको सिद्ध करनेके लिये कुंदकुंदाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं जिससे वह कथन निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। उनके पश्चात् लिखे गये ग्रंथोंमें उनके शास्त्रोंमेंसे बहुत अवतरण लिए गये हैं। वास्तवमें भगवान कुंदकुंदाचार्यने अपने परमागमोंमें तीर्थंकरदेवों द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धांतोंको सुरक्षित करके मोक्षमार्गको स्थिर रखा है। वि० सं० ९९० में होनेवाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार नामक ग्रंथमें कहते हैं कि * “विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधरस्वामीके समवसरणमें जाकर श्री पद्मनन्दिनाथ (कुंदकुंदाचार्यदेव) ने स्वयं प्राप्त किये हुए ज्ञान द्वारा बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?'' हम एक दूसरा उल्लेख भी देखे, जिसमें कुंदकुंदाचार्यदेवको कलिकालसर्वज्ञ कहा गया है: 'पद्मनन्दि, कुंदकुंदाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य – इन पाँच नामोंसे विभूषित, जिन्हें चार अंगुल ऊपर आकाशमें गमन करनेकी ऋद्धि प्राप्त थी, जिन्होंने पूर्व विदेहमें जाकर सीमंधरभगवानकी वंदना की थी और उनसे प्राप्त हुए श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया है ऐसे जो जिनचन्द्रसुरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव) उनके द्वारा रचे गये इस षट्प्राभृत ग्रन्थमें.००० सूरीश्वर श्री श्रुतसागर रचित मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई।'' ऐसा षट्प्राभृतकी श्री श्रुतसागरसूरिकृत टीकाके अंतमें लिखा है। भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवकी महत्ता दरशानेवाले ऐसे अनेकानेक उल्लेख जैन साहित्यमें मिलते हैं; शिलालेख भी अनेक हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सनातन जैन सम्प्रदायमें कलिकालसर्वज्ञ भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवका स्थान अद्वितीय है। ----- * मूल श्लोकके लिये देखिये आगे ‘भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सम्बन्धी उल्लेख'। १ भगवान कुंदकंदाचार्यदेवके विदेह गमन सम्बन्धी एक उल्लेख (लगभग विक्रम संवत की तेरहवीं शताब्दीमें होनेवाले) श्री जयसेनाचार्यने भी किया है। उस उल्लेखके लिये इस शास्त्रके तीसरे पृष्ठका पदटिप्पण देखे। २ शिलालेखोंके लिये देखिये आगे ‘भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सम्बन्धी उल्लेख'। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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