Book Title: Punchaastikaai Sangrah
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 17
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस पामरको श्री पंचास्तिकायसंग्रह प्रति, पंचास्तिकायसंग्रहके महान कर्ता प्रति एवं पंचास्तिकायसंग्रहमें उपदेशित वीतरागविज्ञानके प्रति बहुमान वृद्धिके विशिष्ट निमित्त हुए हैं, ऐसी परम पूज्य बहिनश्रीके चरणकममें यह हृदय नमन करता है। _इस अनुवादमें, आदरणीय वकील श्रीरामजीभाई माणेकचंद दोशी तथा बालब्रह्मचारी भाईश्री चंदुलाल खीमचंद झोबालियाकी हार्दिक सहायता है। आदरणीय श्री रामजीभाईने अपने व्यस्त धार्मिक व्यवसायोंमेंसे समय निकालकर समस्त अनुवादकी सुक्ष्मतासे जाँचकी है, यथोचित सूचनायें दी है और अनुवादमें आनेवाली छोटी-बड़ी कठिनाईयोंका अपने विशाल शास्त्रज्ञानसे निराकरण किया है। उनकी सूचनाएँ मेरे लिये अति उपयोगी सिद्ध हुई है। ब्रम्हचारी भाईश्री चंदुलालभाईने समस्त अनुवादको अति सूक्ष्मतासे जाँचकर उपयोगी सूचनाएं दी है, बहुत परीश्रमपूर्वक हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे संस्कृत टीका सुधारी है, अनुक्रमणिका, गाथासूची, शुद्धिपत्र आदि तैयार किये हैं, तथा अत्यंत सावधानीसे 'प्रूफ' संशोधन किया है--इस प्रकार अति परिश्रम एवं सावधानीपूर्वक सर्वतोमुखी सहायता की है। दोनों सज्जनोंकी सहायताके लिये मैं उनका अंतःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ। उनकी हार्दिक सहायताके बिना इस अनुवादमें अनेक त्रुटियाँ रह जाती। जिन- जिन टीकाओं तथा शास्त्रोंका मैने आधार लिया है उन सबके रचयिताओंका भी मैं ऋणी हूँ। यह अनुवाद मैने पंचास्तिकायसंग्रहके प्रति भक्ति एवं गुरुदेवकी प्रेरणासे प्रेरित होकर, निजकल्याणके हेतु , भवभयसे डरते डरते किया है । अनुवाद करते समय इस बातकी मैने सावधानी रखी है कि शास्त्रके मूल आशयोंमें कोई परिवर्तन न हो जाये। तथापि अल्पज्ञताके कारण इसमें कही आशय-परिवर्तनथयो हआ हो या भलो रह गई हो तो उसके लिये मैं शास्त्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य-भगवान, टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेव, परमकृपालु श्री सद्गुरुदेव एवं मुमुक्षु पाठकोंसे हार्दिक क्षमा याचना करता हूँ। जिनेन्द्रशासनका संक्षेपमें प्रतिपादन करनेवाले इस पवित्र शास्त्रका अध्ययन करके यदि जीव इसके आशयोंको भलीभाँति समझले तो वह अवश्यही चार गतिके अनंत दु:खोनका नाश करके निर्वाणको प्राप्त हो। इसके आशयको सम्यक् प्रकारसे समझनेके लिये निम्नोक्त बातोंको लक्षमें रखना आवश्यक है:- इस शास्त्रमें कतिपय कथन स्वाश्रित निश्चयनयके हैं (-जो स्वका परसे पृथकूप निरूपण करते हैं) और कतिपय कथन पराश्रित व्यवहारनयके हैं (-जो स्वका परके साथ मिश्रितरूपसे निरूपण करते हैं); तथा कतिपय कथन अभिन्नसाध्यसाधन-भावाश्रित निश्चयनयके हैं और कतिपय भिन्नसाध्यसाधनभावश्रित व्यवहारनयके हैं। वहाँ निश्चयकथनोंका तो सीधा ही अर्थ करना चहिये और व्यवहारकथनोंका अभूतार्थ समझकर उनका सच्चा आशय क्या है वह निकालना चाहिये। यदि ऐसा न किया जायगा तो विपरीत समझ होनेसे महा अनर्थ होगा। 'प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। वह अपने ही गुणपर्यायोंको तथा उत्पादव्ययध्रौव्यको करता है। परद्रव्यका वह ग्रहणत्याग नहीं कर सकता तथा परद्रव्य वास्तवमें उसे कुछ लाभ-हानि या सहाय नहीं कर सकता । --जीवकी शुद्ध पर्याय संवर-निर्जरा-मोक्षके कारणभूत है और अशुद्ध पर्याय आस्रव-बंधके कारणभूत है।'- ऐसे मूलभूत सिद्धांतोंको कहीं बाधा न पहुँचे इस प्रकार सदैव शास्त्रके कथनोंका अर्थ करना चाहिये। पुनश्च इस शास्त्रमें कुछ परमप्रयोजनभूत भावोंका निरूपण अति संक्षेपमें ही किया गया है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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