Book Title: Puna Me15 Din Bapu Ke Sath
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 7
________________ 3rd Proof Dt. 19-7-2018 - 60 • महासैनिक . वल्लभभाई पटेल, मौलाना आझाद आदि का आवागमन होता रहता था।तब बापूअपने निजी स्वजनों कस्तुरबा एवं महादेवभाई देसाई को तो पीछे छोड़ आये थे, खो चुके थे-आगाखान महल पूना के ही अपने उस कारावास के दौरान । बारबार एक धुनवत् आगाखान महल और पर्णकुटि की अपनी साइकिलों पर यात्रा करनेवाले हम दोनों मित्र -प्रताप दत्ताणी और मैं तब कभी कभी बापू को देखकर यह जानने की कोशिश करते थे कि बापू को बा-महादेव जैसे इन सर्वाधिक निकट दिवंगत स्वजनों की स्मृति कोई संवेदन जगाती होगी या नहीं? सभी से प्रेम और वात्सल्य से भरे बापू यह थोड़े ही भूल सकते होंगे ?... परंतु सदा सतत कार्यरत एवं ईश्वर प्रार्थनारत स्थितप्रज्ञ बापू, शायद अपनी एकलता अपने भीतर में ही संजोकर अपनी यह स्मृति-संवेदना, स्वजन-अभाव, कहीं दिखने नहीं देते थे। शायद अपनी मौन प्रार्थना में उन्हें याद कर लेते होंगे, जिसकी कि कई कवियों ने परिकल्पनाई की हैं। हम दोनों मित्रों के शोधक कुमार-मानस तब बापू की इस अंतःस्थिति भांपने का प्रयत्न करते रहते। देश की स्वातंत्र्य-यात्रा के उन अंतिम पड़ावों के दौरान बापू की यह अंतःस्थिति तब कैसी रही होगी वह तब तो हमारे कोमल कुमार-मानस पर स्पष्ट नहीं हो सकती थी, परंतु आज जब उन दिनों की उनकी व्यस्तता सोचते हैं, तब कई प्रश्नदृश्य बापू की अंतरावस्था के बावजूद उनकी अपनी कार्यदक्षता एवं जागृत राष्ट्रनेतृत्व-क्षमता से भरे स्मृति में उभर आते हैं। प्रश्न उठता रहा है सदा कि कैसे, किस शक्ति के आधार पर बापू यह सब, यह अंतर-बाह्य निबाह रहे थे ? देश की परिस्थिति के बीच, अन्य सजग चिंतकों, निकटवर्ती दर्शकों, इतिहासज्ञों ने उन दिनों के बापू के कार्य-कलापों को जो शब्दबद्ध किए हैं, उनमें से निम्नलिखित एकाध में से उनकी यह बाह्यांतर अवस्था कुछ खोजने का प्रयत्नमात्र कर सकते हैं : "टुकड़े करके राज्य चलाएँ' के अंग्रेजों के सिध्धांत के अनुसार ही कोंग्रेस के सामने मुस्लीम लीग की स्थापना हुई... कोंग्रेस की स्वतंत्रता की मांग के सामने लीग को खड़ी करने का निर्णय अंग्रेज हुकमरानों ने किया। 1937 के चुनाव के समय बड़ी कठिनाई से अंकुर निकालती हुई लीग को 1946 के चुनाव के समय फुले-फाले वृक्ष की तरह जो देखा जा सकता है उसके पीछे अंग्रेजों के खाद-पानी डालने का बहुत बड़ा हिस्सा है। "आखिरकार निर्णय माउन्टबेटन ने ही किया। गांधी और नहेरु के मत की विरुद्ध जाकर भी उन्होंने जिन्ना की हठ के सामने पल्ला झुका दिया। और इस प्रकार तीस करोड़ हिन्दुओं की नव करोड मुस्लीमों के साथ पेरिटी (समकक्षता) मनवाई गई और जिन्ना ही हिन्दुस्तान के सारे मुस्लीमों के प्रतिनिधि होने का जो दावा करते थे वह भी मान्य हुआ।" (इस) सारी घटना के सम्बन्ध में गांधीजी के सचिव-जीवन चरित्रकार प्यारेलाल लिखते हैं - "मुस्लीम लीग के दिल में सच्चाई न हो तो भी संयुक्त अपील माउन्टबेटन के कहने से करने में आई होने से, परोक्ष रूप से वाइसरोय भी उसके पक्षकार बनते थे और वह वस्तु उसके संपूर्ण अमल करने का बोझ उन पर डालती है और उस फर्ज को अदा करने में वे चुकेंगे नहीं ऐसी गांधीजी (60)

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