Book Title: Puna Me15 Din Bapu Ke Sath Author(s): Pratap J Tolia Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation View full book textPage 8
________________ 3rd Proof Dt. 19-7-2018 - 61 • महासैनिक . की मान्यता के विषय में वाइसरोय ने बाद में कहा कि वे ऐसा गर्भितार्थ स्वीकार नहीं करते।" (प्यारेलाल - 'पूर्णाहुति' पृ. 112) इन सारे पुनरुध्धरणों का आधार बापू के पूर्व-सचिव, पुत्रवत् श्री महादेवभाई देसाई के चिंतक, सजग निरीक्षक सुपुत्र श्री नारायण देसाई का अभी का (2013 का) हृदयविदारक गुजराती पुस्तक "जिगरना चीरा" है। अश्रुभीनी स्याही से लिखे गये एक शोकांतिक-करुणान्त नाटक के समान इस पुस्तक में उन्होंने बापूके, भग्नहृदय बन चुके बापूके, 1947-48 के अंतिम दिनों का जो हृदयद्रावक चितार प्रस्तुत किया है उसकी सारी पूर्व घटनाएं एवं परिस्थितियाँ यहाँ 1945-1946 में आकार ले रहीं थीं बीज रूप में। ऊपर उनका कुछ संकेत किया है बापू की अंतरावस्था का बाहरी परिस्थितियों के बीच में से कुछ झाँकने हेतु । तब तो हम जैसे स्वयंसेवक यह सारा समझने के लिए छोटे और अक्षम थे। परंतु उपर्युक्त राष्ट्र-घटनाओं के सन्दर्भ में बापू की तब की 1945-46 की एवं बाद की घटने वाली 1947-48 की वेदना भरी अंतःस्थिति को आज समझने में एक भूमिका प्राप्त होती है। श्री नारायण देसाई की उपर्युक्त पुस्तक बापू के अंतिम दिनों के टूटे हुए दिल की अनकही कथाव्यथा कहती है। बाहरी परिस्थिति बीच अंतरावस्था: राष्ट्रचिंता बीच दरिद्र-चिंता, निसर्गोपचार,रामनाम __ बापू की सारी बाहरी-भीतरी परिस्थितियों का उनका आधार था - प्रार्थना, रामनाम, सत्सत्यमय आत्मस्मृति-परमात्म स्तुति का सातत्य । स्वात्मा का होश और परमात्मा का - 'राम' का शरणग्रहण । प्रभु प्रति इस समर्पणमय भक्ति का एवं अपने आत्मस्वरूप का बोध उन्हों ने बरसों पूर्व से अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शक श्रीमद् राजचंद्रजी से जो पाया था, उसे अपने जीवनांत निकट के इन दिनों तक उन्होंने साकार किया था। किसी भी बाहरी धर्म के लॅबल के बिना वे अपने आंतरिक 'सत्य' धर्ममय, आंतरिक राम की भक्ति में लीन थे। श्रीमद् राजचंद्रजी ने उन्हें इस भीतरी आत्मबोध की स्मृति दृढ़ करवाई थी और बाहरी मत-पंथमय भेदों से वे मुक्त होकर उनसे ऊपर उठ गये थे। श्रीमद्जी का प्रथम बोध शायद यह था : "तुम किसी भी धर्म को मानते हो उसके विषय में मेरा पक्षपात नहीं है... जिस राह से संसार का मल-राग-द्वेषादि-से मुक्त हुआ जा सके, उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचार का तुम सेवन करना...।" (पुष्पमाला-15) स्वयं की १० वर्ष की लघुवय में श्रीमद्जी द्वारा लिखित ऐसे उत्तम गहन विचारों की बापू पर अमिट छाप अंकित हुई थी। इतनी छोटी-सी बाल्यावस्था में लिखित इस 'पुष्पमाला' पर बापू मुग्ध थे। बाद में उन्होंने प्रज्ञाचक्षु पंडित श्री सुखलालजी से कहा भी था कि, "अरे ! यह 'पुष्पमाला' तो पूर्वजन्म की, (पूर्व जन्म के अर्जित ज्ञान की) साक्षी है!" तो ऐसे भीतरी भक्तिधर्म का, उसके प्रतीकरूप जिस 'रामनाम' का उन्हों ने सतत आश्रय लिया था वह उनके सारे बाहरी-भीतरी कार्यकलापों में व्यक्त होता था । चाहे राजनीति-राष्ट्रनीति हो, चाहे निसर्गोपचार हो, चाहे दरीद्रों का उत्थान-कार्य हो । अंतिम दो निसर्गोपचार-निसर्गमय जीवन और (61)Page Navigation
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