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3rd Proof Dt. 19-7-2018 -64
• महासैनिक.
"आज डोक्टरी चिकित्सा खर्चीली बनी जाती रही है। सामान्य-मध्यम वर्ग के लिए भी जहाँ ऐसी महँगी चिकित्सा संभव नहीं है, वहाँ गरीब या पददलित वर्ग की तो बात ही क्या करें ? इस परिस्थिति में पूज्य गांधीजी के निसर्गोपचार केन्द्र संबंधित उपर्युक्त विचार यदि प्रयोग में लाये जाये तो बहुत बड़ा काम हो सकता है।"
('गोरक्षापात्र' मासिक : 1-6-2016) कितनी गहन सच्चाई है, आज के घोर खर्चीले और फिर भी बहुधा असफल एवं निरर्थक ऐसे, बड़ी ही बोलबाला वाले एलॉपैथिक उपचारों और धूम-धडांग ऑपरेशनों के सन्दर्भ में बापूकी उपर्युक्त आर्ष-दृष्टि में !
ये सर्वकालीन 'महत्त्वपूर्ण आर्ष-विचार एवं 'Prevention is better than care' (पश्चात् उपचार के बजाय पूर्व से ही रोगों की रोकथाम : ऐसी प्राकृतिक जीवनशैली), दर्शानेवाली पू. बापू द्वारा लिखित 'आरोग्य की कुंजी' (Key to Health) निसर्गोपचार, इ. सरलतम पुस्तकों को आज के Mad-Medicine-Minded पागल लोग, अपने ही हित में अपनायेंगे ?
महँगी ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के विकल्प के रूप में देश में अन्य अनेक प्राकृतिक विद्यापीठों की भाँति, बापू के स्वयं के चरण जहाँ पड़े हैं, जहां उन्होंने निसर्गोपचार-निष्ट्य से भरे आर्ष-स्वप्न देखे हैं, वहाँ डो. दिनशा के उसी निसर्गोपचार केन्द्र Nature Care के प्रकृति-तीर्थवत् "बापू-स्मारक" के से स्थान पर, आज बापू की कल्पना का ऐसा प्रतिष्ठान प्रस्थापित हो चुका है। इस लेखक ने स्वयं उसकी मुलाकात ली है। इन संस्थापनाओं के पूर्व डो. दिनशा ने वहाँ स्थापित की हुई "Servants of God Society" का भी.यह लेखक साक्षी और प्रत्यक्षदर्शी रहा है । डो. दिनशा जी से घनिष्ठ संबंध जो इस किशोर-कुमार आयु में बना था, वह आगे भी, बापू के बाद भी चला है। न केवल दिनशाजी से और उनके इस Nature Care केन्द्र और "निसर्गोपचार दर्शन" से, अपितु बापू-स्थापित उऊलींकांचन के निसर्गोपचार आश्रम से वहाँ संनिष्ठ बापू-भक्त आजीवन निसर्गोपचारक बालकोबानी भावे से और उन्मुक्त निसर्ग-निकेतन-विहारी बापू के प्रधान शिष्य बाबा विनोबाजी से भी आगे संबंधित होने का बीजारोपण यहीं से हुआ था ! यह भी कैसा सुभग संयोग कि सभी "बा" शब्द नामधारक "बापू","बाबा" और "बालकोबा" : निसर्गोपचार-निष्ठा के त्रिमूर्ति, मेरे जीवन में यहीं से प्राप्त हुए !! कितना बड़ा यह सौभाग्य !!! निसर्गोपचार से विशेष "अपूर्व अवसर" का बाह्यांतर निपँथदशा का जीवनदर्शन
डो. दिनशा जी ने ही जब से मेरे भजन-गान और श्रीमद् राजचन्द्रजी के पदों की बात हुई थी, तब से बापू की "आत्मकथा" किताब मुझे देने का विचार किया था। जब पंद्रह दिन का बापूनिश्रा का मेरा और मेरे मित्र का स्वयंसेवक-सेवा कार्य पूर्ण होने जा रहा था, तब उन्होंने अपनी इस भावना की स्मृति देकर यह पुस्तक मुझे प्रेम से भेंट देते हुए कहा था :
"आ पुस्तक ने बराबर वांचजो-ते दिवसे बापूए कविश्री रायचंदभाई के भजन-पद की जो बात कही थीं, उनके बारे में बापूने इसमें बहुत कुछ लिखा है।"
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