Book Title: Pruthviraj Vijay Ek Aetihasik Mahakavya
Author(s): Prabhakar Shastri
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 8
________________ पृथ्वीराज विजय - एक ऐतिहासिक महाकाव्य " तस्य सान्वय वर्द्धनस्य दयिता देवाधीश समद्यतेः सम भवति काले सा सुबुवे जयन्त सुषमं रूच्चस्थ रभिसूचितै स्थितितमो व्युत्सारि दीप्ति सुतम् ।।७०१ ।। श्रन्या काकिल सोष्यते कुलवधू रूद्दाम धामाद्भुतं देवी मनोरज्जिनो स्मेरस्फुर होहदा । शर्म प्रकाशे ग्रह बाल लोक मनोहराक्ततिमिति प्रोचुर्नरेश जनाः । सोऽप्येनं किल का किलामिधमथा संकथ्य सार्थामिधं देव्यन्या मम काकिलेति नृपतिर्यातिस्म चित्तं मुदम् ||२|| (३) महाराज काकिलदेव (माघ शु० ७ सं० १०६३ से वैशाख शु० १० संवत् १०६६ ) अपने पिता श्री दूलहराय की आज्ञा लेकर महाराज काकिल ने 'भाण्डारेज' को जीतने के लिए प्रस्थान किया था । लिखा है २६४ ] 'जयवंश महाकाव्य' में श्रीसीताराम भट्ट पर्वणीकर ने भी इस घटना की पुष्टि की है। वे लिखते हैं ताताज्ञां परिगृह्य दैवतमपि स्मृत्वा च नत्वा द्विजान् वृद्धा नष्यपरान् परन्तपतति र्वाहानि वृन्दैभृताम ( १ ) | सेनां बोध्वरैर्नयन्न पसुतो भीमप्रभां पतिभिः भीण्डारेजि पुरीममण्डित वयुर्वीरो विजेतुं ययौ ॥८॥ Jain Education International " राजा कदाचित्खलु सोढदेविग्रहीतुकामोऽजनि स्वभाव एवैष हि विक्रमस्य युयुत्सुता विचार्य चञ्चद् भुजदण्डवीर्यं नृपोत्तमः कुमारविक्रान्तिदिहक्षुचित्तः स तु प्ररणम्याथ भाण्डरेजीम् । प्रत्यहमुद्भवेद्यत् ।। १६ ।। काकिलमादिदेश । । यह वर्णन प्रायः सभी इसके पश्चात् महाराज दुलहराय की दक्षिणयात्रा का उल्लेख ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिलता है । परन्तु इसमें कुछ मतभेद है । 'वंशावली' में एक स्थान पर लिखा है कि-'आयुष्य के अन्त में दुलैरायजी ग्वालियर के राजा की अर्जी पर वहां गये थे और दक्षिण से आये हुए शत्रुत्रों को परास्त कर ग्वालियर के जयसिंह को सहायता दी थी।" एक अन्य वंशावली में लिखा है कि“ग्वालियर से दुलह्राय घायल होकर आये थे और खौह में आकर संवत् १०६३ में परलोकवासी हुए थे । " वंशावली की तीसरी प्रति के ११ वें पृष्ठ पर लिखा है कि-' - "दुलैरायजी ग्वालियर के युद्ध में विजयी हुए थे और वहीं मरे थे ।" "वीर विनोद' में भी ग्वालियर में ही मरने का उल्लेख है । राजस्थान के इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टाड ने तो इन सभी से भिन्न लिखा तथा मोरणों के द्वारा उनकी मृत्यु का उल्लेख किया है । वे तो काकिलजी की उत्पत्ति भी दुलहराय के मृत्यु की पश्चात् बतलाते हैं जो किसी भी ऐतिहासिक ग्रन्थ या प्रमाण से पुष्ट नहीं है । प्रतस्थे ||१७|| ( द्वितीयसर्ग - पृष्ठ- ८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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