Book Title: Pruthviraj Vijay Ek Aetihasik Mahakavya
Author(s): Prabhakar Shastri
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 18
________________ ३०४ ] (१) हंसावदे ( राठौड़ जी) राव रणमल की ( २) राणा कुम्भा की (४) अनन्तकुंवरि ( चौहारण जी) काव्य का पद्य इस प्रकार है "घीमानुद्धरणाभिधो दीर्घापञ्जलधि पृथ्वीराज विजय – एक ऐतिहासिक महाकाव्य मापू (चोहारग जी) मेदा की ( ३ ) इन्द्रा (सीसोदा जी ) राव वैरिसाल की पुत्री थी । पुत्र १. चन्द्रसेन जी थे । " पृ० (३२) नितारिव्रजो प्रमज्जदचिर पितुर्विराजित प्रोद्धारण प्रोद्वरः ॥ यशो राशीन्दुराशाततो राज्यं प्राप्य कान्ताभिः बुभुजे चिरं चतसृभिर्भीमं स्मरामः सुखम् ।।७६८ || ' भुजब इनके पुत्र चन्द्रसेनजी का वर्णन इस पद्य से प्रकट किया है— Jain Education International " तस्मिन् विस्मयकारिणी च तनये श्रीशालिनि प्रोन्नते लोकाह्लादिि चन्द्रमस्सुरुचिरे द्राक् चन्द्रसेनाह्वये । चन्द्र ध्वान्तचयानि वाजिषु परा नाराज्जयत्युत्मना राजा रज्जयितुं नरानिव सुरान् सौरान्वयस्वं ययौ ।।७७० || " १७. महाराज चन्द्रसेन जी (मार्गशीर्ष कृ० १४ सं १५२४ से फाल्गुन शु० ५ सं १५५६ ) इनके सम्बन्ध में कोई विशेष उल्लेख नहीं है । इनके ६ पत्नियां थी । पुत्रों में से ज्येष्ठ महाराज पृथ्वीराज आमेर के शासक बने। इतिहास में लिखा है "महाराजा चन्द्रसेन की राणी १, नोली ( सोलंखरगीजी) सांतल की, २. बोली ( बडगुजरजी ) राव चांदा की, ३. अमृत दे ( चौहाणजी ) ऊधो की ४. शंकरण (सुरताराजी) रावत कुम्भाकी ५. भांगा ( चौहाणजी) नरसिंह की ६. प्रभावती ( चौहाणजी) वीरमदेव की थी। इनके पुत्र १ पृथ्वीराजजी अमृत दे ( पृ० ३३) ( चौहाणजी) के उत्पन्न हुए ।" पद्य है विक्रम्य जित्वा रिपून् चिक्रोड़ षड़भिर्युवा ॥ राजावनीषु श्रिया श्रीमान् गजाधीश्वरः ।। " ७७१” पृथ्वीपतिर्बुद्धिमान् स नामोत्सवे । संपूजितैर्व्याहृतो बहुरत्न हेमनिकरं श्री चन्द्रसेनः किरन् ।।७७२ ।। " "राज्यं प्राप्य पितुश्शतक्रतुरुचो आपूर्यद्रविणैः स्वकोशमधिकं कान्ताभिः सुमनोहराभिरभितो राजन्तीषु जयी गजीभिरिव स श्रीमांस्तस्य सुतो बभूव बलवान् पृथ्वीराज मरातिभीतिकरमं नाम्ना एवं प्रीतमनाद्विजैरभिदधे हृयद्भि १५. महाराज पृथ्वीराजजी (फाल्गुन शु० ५ सं १५५६ से कार्तिक शु. ११ सं १५६४ ) इनका नाम इतिहास में बहुत ही प्रसिद्ध है । यह काव्य भी इन्हीं के नाम पर लिखा गया है । इनका जीवन एक भक्त के समान था । प्रथम तो ये बाबा चतुरनाथ के शिष्य बनकर जोगी बन गये थे परन्तु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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