Book Title: Pruthviraj Vijay Ek Aetihasik Mahakavya Author(s): Prabhakar Shastri Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 6
________________ २९२ ] पृथ्वीराज विजय-एक ऐतिहासिक महाकाव्य 'याहि त्वं विजहीहि संशयहतां चिन्तां सुचिन्तामरणी चिन्तान्तनिहिते हिते पदयुगे याभ्यहिते मामके । साहं पूविक मापतन्ति सहसा संचिन्तितार्थालयो यर्थाि विलयो पयः सूनिगतो नश्यन्ति सर्वेऽरयः ।।२।।" X "तत्सर्वं सतिशम्य रभ्य सुषमे देवीं स्वनामाङ्तिां । सद्यो जाम्बावतीं निवेश्य भवने हृद्याकृति कल्पिते । देवी वागमृतस्तुतिग्रह वृहत्स्फूर्तिप्रभावोदयो धुर्यो निधूतसंशयोधृतजयो घीयोगिनामुद्ययौ ।।८४॥" पं० श्री हनुमान शर्मा ने अपने जयपुर के इतिहास में महाराज दूलहराय का परिचय देते हुए लिखा है-- (१) 'वंशावलियों में लिखा है कि माँची की पहली लड़ाई में दूलहरायजी मूच्छित हो गये थे। तब वहां की 'बुढवाय' माता ने सपने में कहा कि "डरो मत, दुबारा चढ़ाई करो । मरी हुई सेना सजीव हो जायगी और तुम जीतोगे।' यह सुनकर दूलराय चैतन्य हुए और दारू पीये हये मीणों को मारकर मांची में अधिकार किया।" (पृ०-१५) (२) "मांची विजय की यादगार में दूलरायजी ने मांची से तीन कोस पर नाके में देवी का नवीन मन्दिर बनवाया था और उसको 'बुढवाया' के बदले 'जमवाय' नाम से विख्यात किया था। इस अवसर तक दुलरायजी दौसा ही रहे थे। किन्तु 'मांची' में अधिकार हो जाने से वहाँ रामचन्द्र जी के नाम पर "रामगढ' बसाया और वहीं रहने लगे।” (पृ० १६) म. सवाई जयसिंह तृतीय के सभासद पं० श्री सीताराम शास्त्री पर्वणीकर ने अपने सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य में उन घटनाओं को इस रूप में उपस्थित किया है "इत्थं स्थिते रात्रिरभूनिशीथे देवी पुरोऽस्याविरभूदयालुः । प्रापन्नदीनोद्धरणवतं यन्न देवतानामिदमस्ति चित्रम् ।।२७।। उत्तिष्ठ वत्सेति वचो निशम्य देव्याःकुमारः सहसोदतिष्ठत् । उत्थाय तां बुद्धद्वयनुसारमेव स्तोतु प्रवृत्तो व्यथितोऽपि देवीम् ।।२८। नमोस्तु ते देवि विशालनेत्रे कृपानिधे त्वं शरणागतानः । पाहि प्रशंस्यासि महेन्द्रपूर्वः सुरैर्न चेत्तहि कुतो मनुष्यः ।।२६॥ अस्याः प्रतीरे खलु वाणनघाः मूर्ति महीयां यमवोय नाम्नीम। विधाय संस्थाप्य यथावदेनां पूज्यामविच्छिन्नतया य यजस्व ।।३२।। ततो यथा वैभवमेव तस्या निर्माय देव्या नरदेवसूनुः । स्वं मन्दिरं तां यमवायदेवीमास्थापयामास यथावदर्चाम् ॥३८।। इत्यादि (जयवंश महाकाव्य-प्रथम सर्ग००३-५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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