Book Title: Prayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 14
________________ xii...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण अर्हत परम्परा में दो प्रकार के मार्गों की व्यवस्था है- उत्सर्ग और अपवाद। प्रायश्चित्त व्यवस्था में तो यहाँ तक कहा गया है कि अपवादिक परिस्थिति में साधक अपवाद मार्ग का सेवन नहीं करता है तो भी वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसी कारण प्रायश्चित्त दाता को देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही प्रायश्चित्त देने का निर्देश है। आगम शास्त्रों में प्रायश्चित्त देने का अधिकार केवल गीतार्थ मुनियों को दिया है। गीतार्थ केवल शास्त्रों के ही ज्ञाता नहीं होते अपितु देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति का भी उन्हें ज्ञान होता है। तदनुसार निर्णय लेने की क्षमता भी रखते हैं। प्रारम्भिक ग्रन्थों में दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। 1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. तदुभय (आलोचना + प्रतिक्रमण) 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10 पारांचिक। ध्यातव्य है कि प्राचीन काल में उक्त दस प्रकार के प्रायश्चित्तों की व्यवस्था थी किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल में कालान्तर प्रायश्चित्तों को हटा दिया गया और नौ प्रकार की प्रायश्चित्त परम्परा सामने रखी गई। किन दोषों का सेवन करने पर कौनसा प्रायश्चित्त देना चाहिए? इस सम्बन्ध में आगम साहित्य, आगमिक व्याख्या साहित्य एवं स्वतंत्र ग्रन्थों में भी विस्तृत चर्चा मिलती है। जैन पुराणों में भी प्रायश्चित्त सम्बन्धी व्यवस्थाएँ देखी जाती है। यह ज्ञातव्य है कि प्रायश्चित्त परम्परा के संदर्भ में जैन परम्परा की दिगम्बर आम्नाय में लोक प्रचलित प्रायश्चित्त को भी स्थान दिया। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में हमें इस प्रकार की कोई व्यवस्था देखने को नहीं मिलती है। यद्यपि आचार दिनकर में कुछ लौकिक प्रायश्चित्त का विधान अवश्य है। श्वेताम्बर परम्परा में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका वर्ग के लिए हर संभावित दोष हेतु प्रायश्चित्त विधान है वहीं दिगम्बर ग्रन्थों में मुनिवर्ग को प्रधानता दी गई है। अत: कह सकते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में इस विषयक व्यापक कार्य किया गया है। दोनों परम्पराओं में तप दान सम्बन्धी विधि को लेकर साम्य-वैषम्य देखा जाता है। वैदिक परम्परा में एवं जैन परम्परा में प्राप्त प्रायश्चित्त विधि मुख्यभूत सन्दर्भो में प्राय: तुल्य है केवल व्रत आदि में लगने वाले दोषों के सम्बन्ध में भिन्नता है। जैन परम्परा में जहाँ गृहस्थ एवं मुनि वर्ग दोनों को ही मुख्यता दी गई है वहीं वैदिक परम्परा में अधिकांश दोष गृहस्थ सम्बन्धी ही है।

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