Book Title: Prayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 13
________________ सम्पादकीय भारतीय संस्कृति में चित्त विशुद्धि एवं अपराधों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त देने की परम्परा अति प्राचीन काल से रही है। भारतीय जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्पराओं में प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। जहाँ तक हिन्दू परम्परा का प्रश्न है वहाँ स्मृतियों में दण्ड या प्रायश्चित्त व्यवस्था का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त परवर्ती काल में कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गये हैं जिनका उल्लेख प्रो. काणे ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में किया है। जहाँ तक बौद्ध परम्परा का प्रश्न है उसमें विनयपिटक के अन्तर्गत भिक्षु-भिक्षुणी के आचार संबंधी प्रायश्चित्तों की चर्चा की गई है। जैन परम्परा के प्राचीन परवर्ती ग्रन्थों में भी श्रमण-श्रमणियों संबंधी प्रायश्चित्तों का ही विशेष उल्लेख मिलता है। प्रायश्चित्त सम्बन्धी इन ग्रन्थों में दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ मुख्य माने गए हैं किन्तु इनमें कहीं भी गृहस्थ वर्ग सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान का वर्णन नहीं है। गृहस्थ संबंधी प्रायश्चित्तों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परावर्ती आचार दिनकर में पाया जाता है। यद्यपि इसके पूर्व भी श्रावकों के प्रायश्चित्त ग्रहण सम्बन्धी कुछ ग्रन्थ रहे होंगे किन्तु आज उनकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, मणिकचंद्र दिगम्बर ग्रंथमाला पुष्प क्रमांक 18 में प्राच्यसंग्रह नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत छेद पिंड, छेद शास्त्र, प्रायश्चित्त चूलिका और अकलंक प्रायश्चित्त ऐसे चार ग्रन्थ हैं। इन सभी ग्रन्थों में मुनि के आचार सम्बन्धी प्रायश्चित्तों के साथ श्रावक सम्बन्धी प्रायश्चित्तों का भी विवेचन किया है। प्रायश्चित्त सामान्यतया आत्म शोधन की एक प्रक्रिया है। इसमें दोषी स्वयं अपने दोषों का दर्शन करता है और यह दोष दर्शन ही आगे चलकर आत्म शोधन की प्रक्रिया बन जाता है। जैन धर्म में प्रायश्चित्त दान की एक सापेक्ष व्यवस्था है। जैनाचार्यों की यह मान्यता है कि एक ही समान किए जाने वाले अपराध के लिए देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त दिए जा सकते हैं।

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