Book Title: Pravachansara Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 12
________________ जिसके द्वारा सिद्धान्त का सार/मर्म समझ लिया गया है तथा कषाय नियंत्रित की गई है और जो तप में विशिष्ट है तो भी यदि वह लौकिक मनुष्यों से मेल-जोल नहीं छोड़ता है तो वह संयमी नहीं होता है/नहीं हो सकता है (68)। दीक्षा ग्रहण किया हुआ श्रमण यदि इस लोक संबंधी/सांसारिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है तो वह लौकिक ही कहा गया है(69)। इसलिए यदि श्रमण दुखों से मुक्ति चाहता है तो वह सदैव अपने गुणों से एकसमान अथवा अपने गुणों से ज्यादा गुणवाला श्रमण जहाँ रहता है वहाँ पर ही रहे। (70)। जिसके लिए शत्रु और बंधुवर्ग समान है, सुख-दुख समान है, प्रशंसानिंदा समान है, मिट्टी का ढेला और सोना समान है और जो जीवन-मरण में समान है वह परिपूर्ण श्रमण ही है (41)। जो श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों में एक ही साथ उद्यमी/प्रयत्नशील है वह ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए एकाग्रचित्त हुआ माना गया है। उसके भी परिपूर्ण श्रमणता है (42)। शुद्धोपयोगी के श्रमणता कही गई है और शुद्धोपयोगी के ज्ञान-दर्शन कहा गया है तथा शुद्धोपयोगी के मोक्ष भी कहा गया है। वह ही सिद्ध है (74)। जो श्रमण सदैव आत्मस्मरण की दिशा में तथा ज्ञान में संबद्ध है और मूलगुणों में जागरूक हुआ आचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रमणता प्राप्त किया हुआ है (14)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार

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