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जिनके द्वारा पदार्थ सम्यक् प्रकार से जान लिये गये हैं, जिन्होंने बहिरंग तथा अंतरंग परिग्रह को छोड़ दिया है जो इन्द्रिय विषयों में आसक्त नहीं है वे शुद्धोपयोगी कहे गये हैं (73)। जो अशुद्ध आचार से रहित हैं, जिसके द्वारा वास्तविक पदार्थ का निश्चय कर लिया गया है तथा जिसकी आत्मा शान्त (व्याकुलता-रहित) है तथा जिसके द्वारा श्रमणता/श्रमण-साधना पूरी कर ली गई है वह इस निरर्थक संसार में दीर्घ काल तक नहीं ठहरता है (72)।
शुद्धोपयोग की साधना में संलग्न श्रमणों में विद्यमान कष्टों का निराकरण, स्तुति और नमन सहित उनके आगमन पर सम्मान के लिए खड़े होना, उनके जाने पर उनके पीछे-पीछे चलना- ये सब प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगी श्रमण के लिए अस्वीकृत नहीं है (47)। यदि श्रमण अवस्था में अरहंतादि में भक्ति होती है और आगम-ज्ञान में संलग्न श्रमणों के प्रति वात्सल्य भाव होता है तो श्रमण की वह चर्या शुभ-युक्त/शुभोपयोगी होती है।(46)। श्रमण दीक्षा :
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो व्यक्ति आवागमनात्मक संसार से मुक्ति चाहता है तो उसे श्रमण दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये। सर्वप्रथम वह मातापिता, पत्नी और पुत्रों से तथा भाई-बन्धों से अनुमति प्राप्त करले (1,2)। तत्पश्चात आचार्य से दीक्षा धारण करने की प्रक्रिया को अंगीकार करे। श्रमण दीक्षा के 28 घटक निम्नप्रकार हैं जो मूलगुण कहलाते हैं (8,9)। पाँच महाव्रत-(1) अहिंसा (2) सत्य (3) अचौर्य (4) ब्रह्मचर्य (5) अपरिग्रह पाँच समिति- (6) ईर्या (7) भाषा (8) एषणा (9)आदान-निक्षेपण (10) प्रतिष्ठापन पाँच इन्द्रियों का निरोध- (11) स्पर्शन (12) रसना (13) घ्राण (14)चक्षु (15) कर्ण
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार