Book Title: Pratishtha Lekh Sangraha Part 02
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Vinaysagar

Previous | Next

Page 8
________________ (स्वकथ्य) मेरे परमाराध्य पूज्य गुरुदेव श्री जिन मणिसागरसूरिजी महाराज का विक्रम सम्वत् २००० का चातुर्मास बीकानेर में था। श्री शुभराज जी नाहटा (श्री अगरचन्द जी नाहटा के बड़े भाई) के नव-निर्मित भवन शुभ-विलास में था। उस समय मैं कौमुदी पढ़ रहा था। "टाडसिंडस्सामिनात्स्याः , राजाह: सखिभ्यस्टच्" आदि सूत्रों का पठन करते हुए मैं ऊब-सा गया था। मन उचाट होने से पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था। बचपन जो था। पूज्य गुरुदेव मुझे योग्य विद्वान् बनाना चाहते थे। मेरी मन:स्थिति को भाँप कर उन्होंने श्री नाहटा-बन्धुओं को इस ओर संकेत किया। जैन साहित्य मनीषी श्री अगरचन्द जी और भँवरलाल जी नाहटा ने समय की माँग को देखकर मुझे साहित्य-संरक्षण और प्राचीन लिपि-पठन की ओर प्रेरित किया। प्राचीन हस्त-लिखित ग्रन्थों की लिपि पढ़ने और बिखरे हुए पत्रों के कागज की अवस्था, साईज, लिपि की मोड़ आदि की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट कर मुझे इस मार्ग पर लगाया। मुझे यह मार्ग रुचिकर भी लगा। मैं कार्य भी करने लगा और पढ़ाई भी करने लगा। संयोग से इसी चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव की निश्रा में उपधान तप भी हुआ। इसी प्रसंग में श्री चिन्तामण जी मंदिर में भंडारस्थ प्राचीनतम ग्यारह सौ प्रतिमाएँ भी भंडार से बाहर निकाली गईं। ये प्रतिमाएँ वर्षों बाद किसी विशिष्ट कारण पर ही निकाली जाती थीं। १३ वर्ष पूर्व सम्वत् १९८७ में परम-पूज्य आचार्यदेव श्री जिनकृपाचन्दसूरि जी महाराज के समय में निकाली गई थीं। उसके पश्चात् १९९५ में श्री जिनहरिसागरसूरि जी महाराज के समय में भी निकाली गई थी। आठ दिन का महोत्सव हुआ। श्री नाहटा-बन्धुओं ने इन समस्त प्रतिमाओं के लेखों की प्रतिलिपि करना प्रारम्भ किया। मुझे भी इस काम में नाहटा-बन्धुओं ने जोड़ा। मैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 218