Book Title: Pratishtha Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Vinaysagar

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Page 10
________________ की गई उनको प्रेस कोपी वैसे ही नष्ट हो जायेंगी ।" मैंने भी विचार किया कि वस्तुतः यह कथन युक्तियुक्त है। मुझे इन लगभग २००० लेखों को लिए हुए सात वर्ष व्यतीत हो गए। प्रेस कापी के कागज भी जीर्ण हो रहे हैं और स्याही फीकी पड़ जाने के कारण लिपि भी अस्पष्ट होती जा रही है अतएव ग्रह का प्रकाशन कर देना ही उचित प्रतीत हुआ। उस समय मेरे लेख संग्रह की कापी कोटा में थी। अतः तत्काल कार्य प्रारम्भ न कर सका । संयोगवश चातुर्मास पश्चात् मेरा अहमदावाद से कोटा आना हुआ और पूर्व विचारों के अनुसार लेख संग्रह का प्रकाशित कराना निश्चित कर लिया। उसके लिये प्रेस कोपी का पुनर्नी. रिक्षण किया। पूर्ववर्ती क्रम ( जो प्रत्येक मन्दिर के पाषाण, धातु आदि के आधार पर था) उपयुक्त नहीं अँचा । अत: उनका संवतानुसार वर्गीकरण किया गया। वर्गीकरण करते समय यह विचार आया कि-"लेख तो लगभग २२०० है । यदि सम्पूर्ण एक साथ प्रकाशित करेंगे- तो पुस्तक बहुत बड़ी हो जायगी। अतः १७ वीं शती तक के ही लेखों का इस प्रथम भाग में समावेश में किया जाय, अवशिष्ट १८ वीं शती से २० वीं शती तक के लेख द्वितीय भाग में रखे जायँ ।" इसी विचारानुसार इस प्रथम भाग में ११ वीं शती से लेकर १७ वीं शती तक के १२०० लेख संकलित किये गये हैं। मूर्ति किस स्थान पर और किस मन्दिर में है, इसका उल्लेख लेखांक नम्बर के अनुसार ही नीचे टिप्पणी में सूचित कर दिया है। साथ ही मूर्ति पाषाण की है अथवा धातु की, इसका स्पष्टीकरण लेखांक नम्बर के साथ ही हो जाता है यदि नम्बर के साथ 'आदिनाथपंचतीर्थीः' अथवा 'पार्श्वनाथचतुर्विंशतिपट्टः अथवा 'शान्तिनाथ एकतीर्थीः' है-तो धातु की मूर्ति समझनी चाहिये और यदि केवल 'नमिनाथः' आदि भगवान का ही नाम है तो पाषाण की मूर्ति समझनी चाहिये। लेखों के प्रारम्भ में जहाँ । ०॥' यह चिह्न प्राता है, उसके स्थान पर मैंने सब ही जगह ॥ ॐ का प्रयोग किया है। ये सारे लेख मेरे बाल्यकाल के ही लिये हुये हैं । अतः लिपिवाचन आदि में भ्रम रह जाने से कई जगह अस्पष्ट ले रह गये हैं उनपर प्रश्नवाचक चिह्न रख दिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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