________________
मूड़विद्री तक जैन मंदिरों में कितने सरस्वती भण्डार हैं और इन भण्डारों में कितनी प्रन्थ सामग्री है यह प्रश्न राष्ट्रीय महत्व का है एवं उसी धरातल पर अनुसंधान चाहता है । यहाँ न धर्म भेद का प्रश्न है, न जाति का । यह तो भारत के अतीत इतिहास साहित्य और संस्कृति का ऐसा वैश्रवण-कोश है जिसकी सार-सँभाल होनी ही चाहिए । क्योंकि काल के विस्मृत गर्भ से बची हुई इस सामग्री में देश और विदेश के सभी विद्वानों में रुचि है । विशेषतः भारत की मध्यकालीन संस्कृति के परिचय के लिये तो इस साहित्य का अत्यधिक महत्व है । दूसरा लाभ यह है कि हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि भाषाओं के विकास और इतिहास के शोधन की भी अपरिमित सामग्री इस साहित्य में मिलने की आशा है ।
प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों के अन्त में लिखी हुई प्रशस्तियों में धार्मिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास के कितने ही महत्व पूर्ण उल्लेख पाए जाते हैं । उसी प्रकार मूर्तियों को चरण चौकी पर या उनके पृष्ठभाग में खुदे हुए प्रतिष्ठा लेखों में भी इस प्रकार की सामग्री पाई जाती है। श्री मुनि जिनविनय जी ने 'जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' नाम से पाँच सौ से अधिक ग्रन्थ प्रशस्तियों का एक संग्रह सिंघी जैन ग्रन्थ माला में प्रकाशित किया था । उसमें सं० १९०६ से संवत् १५०६ तक के बीच में लिखे हुए ताडपत्रीय ग्रन्थों की पुष्पिकाओं का संग्रह है । इसी प्रकार दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी जयपुर की ओर से श्री कस्तूरचंद कासलीवाल ने आमेर शास्त भण्डार के संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषा के उपलब्ध ग्रन्थों की प्रशस्तियों का संकलन करके ' प्रशस्ति संग्रह' नोम ग्रन्थ प्रकाशित किया । प्रशस्ति लेख और मूर्ति लेखों की इस बढ़ती हुई सामग्री को देख कर भविष्य के लिये नई आशा का उदय होता है कि इनके द्वारा साहित्य और इतिहास की कितनी अपूर्व जानकारी हमारे ज्ञान क्षेत्र में थाजायगी। इन लेखों में अनेक जैनाचार्य ग्रन्थकार विद्वान् साधु एवं साध्वियों के नाम, अनेक गए, गच्छ, जाति एवं कुलों के नाम, अनेक स्थान (ग्राम, नगर, दुर्ग आदि ) और तत्कालीन नृपति तथा अन्यान्य राज्याधिकारियों के नाम एवं कई सौ श्रावक श्रावकियों के नाम आए हैं । मुनि जिन विजय द्वारा संपादित 'जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' की भाँति उपाध्याय विनय सागर जी ने भी नामों की इन सूचियों का कई परिशिष्टों में संग्रह किया है । सांस्कृतिक इतिहास निर्माण के लिये
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org