Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Vimal Prakashan Trust Ahmedabad

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Page 246
________________ २३३ जैसे श्रावक गुरु के पास आकर इच्छा व्यक्त करता है कि'हे गुरुजी ! मैं आपकी भक्ति पूर्वक वंदना करूं।' अब यदि गुरु कहते हैं कि, "हाँ, करो।" तो इससे स्वयं के मुख से ही स्वयं को, वंदन करने का कहने से गुरु मामलोभी कहलाता है और यदि 'ना' कहे तो गुरुवंदन का कार्य सावद्य कहा जाकर उसका निषेध हो जाता है। इस प्रकार-"सरोते के बीच सुपारी" जैसी दशा हो जाती है । तब इस कार्य को निरवद्य जानकर गुरु के लिये चुप रहने के सिवाय कोई रास्ता नहीं। जैसे कोई कसाई यदि गुरु के पास आकर एक जीव को उसकी भक्ति के रूप से मारने का कहे तो गुरु क्या जवाब देगा ?" यदि चुप रहे तो कसाई समझेगा कि-"माधु की इस कार्य में अनुमति होने से मुझे नहीं रोकते" और फलस्वरूप वह मारने लग जायेगा। पर यदि साधु ऐसा कहे कि, "यह काम सावध होने से इसमें भक्ति नहीं है" तभी वह मारने से रुकेगा। आजकल के अल्पज्ञानी साधु भी सावद्य-निरवद्य तथा भक्ति-अभक्ति के हेतू को जान कर योग्य वर्तन करते हैं, तो फिर जगद्गुरु सर्वज्ञ भगवान्, अगर गौतमस्वामी महाराज आदि नाटक पूजा को सावध समझते तो, उसका निषेध कैसे नहीं करते ? "भक्तिपूर्वक" शब्द शास्त्रकारों ने काम में लिया है इससे सूर्याभदेव की भक्ति प्रधान है और भक्ति का फल श्री उत्तराध्ययन सूत्र के २९वें अध्ययन में मोक्ष तक का कहा है । क्षायिक, सम्यक्त्वी, एकावतारी, तीन ज्ञान के स्वामी सूर्याभदेव क्या देव-गुरु भक्ति की विधि को नहीं जानते होंगे। साथ ही भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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