Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Vimal Prakashan Trust Ahmedabad

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Page 282
________________ २६६ मूर्तिपूजा की प्रथम कक्षा के कर्तव्य का भी जो बराबर "पालन करते हैं, उनका अंतःकरण मूर्ति पूजन नहीं करने वालों की तुलना में अधिक सात्विक और समाधान वाला होता है । आगे की कक्षाओं का बोध कराने वाला उसे कोई मिला नहीं, इससे वे वहीं के वहीं अटके रहे, परन्तु यदि उन्हें वहाँ कोई बोध कराने वाला मिले और वे प्रयत्न करें तो तत्त्वज्ञान में काफी आगे बढ़े बिना नहीं रहें। मूर्तिपूजन नहीं करने वाले का अंतःकरण भक्ति शून्य, तामसी, अनिर्णीत, गोटाले वाला और बेढंगा होता है जबकि मूर्तिपूजक सात्विक, भक्तिमान् और अधिक समाधान वाली मनोवृत्ति को धारण करने वाला होता है। वह मूर्तिपूजक को मंद बुद्धि वाला समझता है, जबकि वास्तव में उसकी अपेक्षा वह स्वयं मंद बुद्धि वाला होता है । मूर्ति को उड़ाकर परमेश्वर का वे कुछ भी अधिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते । परमेश्वर का ज्ञान केवल शास्त्रों में से उनका स्वरूप जानने मात्र से नहीं होता पर अनुभव करने से होता है। जिसने नारंगी नहीं खाई, उसके आगे नारंगी का कितना भी वर्णन करने पर भी उसे नारंगी के स्वाद का लेश मात्र भी ज्ञान नहीं होता। स्थूल वस्तुओं में जब ऐसा होता है, तो सूक्ष्म में तो वैसा हो, इसमें आश्चर्य क्या है ? परमेश्वर जैसा है उसका वैसा अनुभव शब्दों से लेश मात्र “भी नहीं होता। नारंगी के अनुभव के लिये जैसे नारंगी को खाना पड़ता है, वैसे ही परमेश्वर का अनुभव करने के लिए उसे पूजनादि के द्वारा प्रत्यक्ष करना पड़ता है। जो जो वस्तु अगम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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