Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 12
________________ यात्रा संदेह से प्रारम्भ होती है, अंत में श्रद्धा तक पहुंच जाती है। अपना समाधान पाने पर संदेह की परिणति श्रद्धा में हो सकती है। इससे ठीक विपरीत, समाधानरहित अंधश्रद्धा की परिणति संदेह में होगी। जो संदेह से चलेगा, अंत में सत्य को पाकर श्रद्धा तक पहुंच जाएगा, जबकि जो श्रद्धा से प्रारम्भ करेगा, वह या तो आगे कोई प्रगति ही नहीं करेगा या फिर उसकी श्रद्धा खंडित होकर संदेह में परिणत हो जाएगी। यह है आचारांग की दार्शनिक दृष्टि का परिचय। आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण आत्मा के स्वरूप या स्वभाव का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट रूप से कहा है- जे आया से विनाया, जे विनाया से आया। जेण वियाणइ से आया। तं पडुच्च पडिसंखाये-(१/५/५)। इस प्रकार, वह ज्ञान को आत्मस्वभाव या आत्म-स्वरूप बताता है। जहां आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प- ऐसे तीन लक्षण बताता है, वहां आचारांग केवल आत्मा के ज्ञान लक्षण पर बल देता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यही दोनों में अंतर प्रतीत होता है, किंतु अनुभूति (वेदना) और संकल्प- यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा के हैं, अत: ज्ञान ही प्रथम लक्षण सिद्ध होता है। वैसे, आचारांगसूत्र में तथा परवर्ती जैन ग्रंथों में भी मनोविज्ञानसम्मत इन तीनों लक्षणों को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांगसूत्र का आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है, क्योंकि आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णतः समभाव या समाधि की उपलब्धि सम्भव नहीं है, जब तक सुख दुःखात्मक वेदना की अनुभूति है या संकल्प-विकल्प का चक्र चल रहा है, आत्मा पर भाव में स्थित होता है, चित्त समाधि नहीं रहती है। आत्मा का स्वरूप या स्वभाव धर्म तो समता है, जो केवल उसके ज्ञाता-दृष्टा रूप में स्वरूपतः उपलब्ध होता है। वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूपतः उपलब्ध नहीं है। मन का ज्ञान : साधना का प्रथम चरण निर्ग्रन्थ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता है- जो (8)

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