Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 11
________________ का परिचय दिया है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी जिजीविषा और जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्तियां मानी गई हैं। सत्य की खोज में संदेह (दार्शनिक जिज्ञासा) का स्थान यह कितना आश्चर्यजनक है कि आचारांग श्रद्धा के स्थान पर संशय को सत्य की खोज का एक आवश्यक चरण मानता है। सम्भवतया, ऐसा प्रतीत होता है कि जैनधर्म के आरम्भिक काल में श्रद्धा का तत्त्व इतना प्रमुख नहीं था। आचारांग में 'णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पन्नाणमंताणं इहमुत्तिमगं' (1 / 6 / 1) कहकर समाधि एवं प्रज्ञा के रूप में जिस मुक्ति मार्ग का विधान हुआ है, वह स्वयं इस बात का संकेत करता है कि उस समय तक दर्शन और सम्यग्दर्शन शब्द श्रद्धा का सूचक नहीं था। यद्यपि आचारांग में दंसण और सम्मत्तदंसी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किंतु मेरी दृष्टि में कहीं भी इसका प्रयोग श्रद्धा के अर्थ में नहीं हुआ है। अधिक से अधिक ये शब्द 'दृष्टिकोण' या 'सिद्धांत' के अर्थ में प्रयुक्त / हुए हैं, जैसे-एयं पासगस्स दंसणं (1 // 3 // 4) / वस्तुतः, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी भी धार्मिक आंदोलन में श्रद्धा का तत्त्व उसके परवर्ती युग में, जबकि वह कुछ विचारों एवं मान्यताओं से आबद्ध हो जाता है, अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। आचारांग में संशय का जो स्थान स्वीकार किया गया है, वह दार्शनिक दृष्टि से काफी उपयोगी है। मानवीय जिज्ञासावृत्ति को महत्त्व देते हुए तो यहां तक कहा गया है कि 'संसय परिआगओ संसारे परिन्नये (1 / 5 / 1)', अर्थात् संशय के ज्ञान से ही संसार का ज्ञान होता है। आज समस्त वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में संशय (जिज्ञासा) की पद्धति को आवश्यक माना गया है। संशय की पद्धति को आज एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का यही एकमात्र मार्ग है, जिसे सूत्रकार ने पूरी तरह समझा है। ज्ञान के विकास की यात्रा संदेह (जिज्ञासा) से ही प्रारम्भ होती है, क्योंकि संशय के स्थान पर श्रद्धा आ गई, तो विचार का द्वार ही बंद हो जाएगा, वहां ज्ञान की प्रगति कैसे होगी ? संशय विचार के द्वार को उद्घाटित करता है। विचार या चिंतन से विवेक जाग्रत होता है, ज्ञान के नए आयाम प्रकट होने लगते हैं। आचारांग ज्ञान की विकास यात्रा के मूल में संदेह को स्वीकार करके चलता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जो

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