Book Title: Paryushan Aur Kesh Loch
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 3
________________ - 'उड्डतरूणे चउमासो 7, निशीथ भाष्य 3213 -थेरकप्पितो तरूणो उड्डबद्धे चउण्हं मासाणं लोयं करावेंति । - निशीथ चूर्णि । जो साधु-साध्वी स्थविर अर्थात् वृद्ध हो जाते थे, उन्हें छह मास के अनंतर लोच करना होता था। यदि छह महीने पर भी लोच न कर सकते हों तो वर्ष में एक बार आषाढ़ पूर्णिमा के आसपास तो स्थविर को भी लोच करना ही होता था। स्थविर जराजर्जर होने के कारण असमर्थ होता है, नेत्र शक्ति भी क्षीण हो जाती है, अत: दुर्बलता एवं नेत्ररक्षा के लिए स्थविर को छूट दी गई है। इसके लिए देखिए कल्पसूत्र मूल और उसकी टीका । 'छम्मासिए लोए, संवच्छरिए वा थेरकप्पे ।' 9/57 - षाण्मासिको लोचः, संवच्छरिए वा थेरकप्पेति - स्थविराणां वृध्दानां जराजर्जरत्वेनाऽसामर्थ्याद् दृष्टिरक्षार्थं च सांवत्सरिको वा लोच: स्थविरकल्पे स्थितानामिति । लोच न करने पर प्रायश्चित्त जैन परंपरा देश, काल और व्यक्ति की स्थिति एवं परिस्थिति को लक्ष्य में रखकर अग्रसर होती है । वह कोई अंध परंपरा नहीं है, जो अंधे हाथी की तरह विवेकहीन गति से दौड़ती चली जाए, इधर-उधर के अच्छे बुरे का - उचित अनुचित का कोई भान ही न रखे। जिस प्रकार अन्य क्रियाकाण्डों में उत्सर्ग अपवाद का ध्यान रखा गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत लोच के संबंध में भी सही स्थिति को ध्यान में रखा है। प्राचीन ग्रंथकारों ने कहा है कि यदि भिक्षु या भिक्षुणी समर्थ हैं, निरोग हैं, कोई आधिव्याधि नहीं है, अच्छी तरह लोच कर सकते हैं, फिर भी यदि वे लोच न करें, नाई के द्वारा उस्तरे से शिर मुण्डा लें, या कैंची से बाल कटवा लें, तो उन्हें प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्त समर्थ को आता है, असमर्थ को नहीं । यदि समर्थ होते हुए भी उस्तरे से मुण्डन कराए तो लघुमास प्रायश्चित्त आता है, और यदि कैंची से बाल कटवाए तो गुरु मास प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्त क्यों आता है, इसका स्पष्टीकरणकरते हुए कहा है कि - समर्थ को परंपरा का पालन पर्युषण और केशलोच 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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