Book Title: Paryushan Aur Kesh Loch Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf View full book textPage 1
________________ 9॥ पर्युषण और केशलोच कब और क्यों? प्रश्न - पर्युषण अर्थात् संवत्सरी पर्व कब करना चाहिए और उस प्रसंग पर केशलोच करने का क्या उद्देश्य है? क्या यह सबके लिए अनिवार्य है? यदि किसी विशेष परिस्थिति में लोच न किया जा सके तो क्या वह श्रमणसंघ में नहीं रह सकता? केशलोच के संबंध में प्राचीन और आधुनिक पंरपरा में क्या कुछ अंतर पड़ा है? यदि अंतर पड़ा है तो वह क्या है? केशलोच की सर्वमान्यता उत्तर- प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। समाधान के लिए चिंतन की गहराई में उतरना होगा, प्राचीन परंपरा और शास्त्रों एवं ग्रंथों का आलोडन भी करना होगा। यह एक नाजुक सवाल है। इसे यों ही चलती भाषा में इधर-उधर की दो चार बातें कह कर नहीं हल किया जा सकता। जैन श्रमण-परंपरा में केशलोच की व्यापक परंपरा है। श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथ आदि नई-पुरानी सभी शाखाओं में केशलोच की सर्वमान्य मान्यता है। दूसरी बातों में कितने ही मतभेद हुए हों, कितनी ही पुरानी पंरपराएँ टूटी हों और नयी बनी हों, परन्तु केशलोच की मान्यता में कोई उल्लेखनीय एकांत अंतर नहीं आया है। सभी परंपराओं में इसके लिए 'हाँ' है, 'ना' नहीं है। केशलोच का महत्त्व जैन श्रमणों के क्रियाकाण्डों में केशलोच एक कठोर क्रियाकाण्ड है।' अपने हाथों से अपने शिर के बालों को नौंच डालना, एक असाधारण साहस की बात है। यह देहभाव से ऊपर उठने की स्थिति है। तितिक्षा की, कष्ट सहन की चरम प्रक्रिया है। एक युग था, जब साधक शरीर की मोह-ममता से परे होता था, स्वयं कष्टों को निमंत्रण देकर उन्हें सहता था और अपनी अनाकुलता एवं धृति की परीक्षा करता था। अपने किसी कार्यविशेष की पूर्ति के लिए जनता से किसी 137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 ... 16