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प्रस्तावना जैन न्याय के संस्थापक, महान् तार्किक, आचार्य समन्तभद्रस्वामी, जैनशासन की कीर्तिध्वजा को शास्त्रार्थों के माध्यम से संरक्षित रखने वाले आचार्य भट्टाकलंकदेव, जैन न्याय के महान् ग्रन्थों पर विस्तृत एवं विशद टीका ग्रन्थों का सृजन करने वाले आचार्य विद्यानंदि, आचार्य प्रभाचन्द्र आदि तार्किकों ने जैनन्याय के महान् ग्रन्थों का सृजन कर माँ भारती के भण्डार को समृद्ध किया है। इन महान् आचार्यों ने अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा छैनी से परपक्ष द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त, स्याद्वाद, सिद्धान्तों पर किए गए कुठाराघातों का निराकरण करते हुए जैन दर्शन में मान्य वस्तुतत्त्व की व्यवस्था को गौरवशाली प्रतिष्ठा दिलाई है। पहले जैन न्यायग्रन्थों की परम्परा का युग था। जैनाचार्यों ने अनेकानेक जैन न्याय ग्रन्थों का मूल सृजन किया। उत्तरवर्ती आचार्यों ने उन ग्रन्थों पर विशालकाय टीकात्मक ग्रन्थों का सृजन कर इस परम्परा को जीवित रखा है।
__ विशालकायात्मक न्यायग्रन्थों का अवलोकन करके जैनन्याय का आद्य सूत्र ग्रन्थ परीक्षामुख आचार्य माणिक्यनंदीजी का अगाध वैदुष्य एवं सूक्ष्मप्रज्ञता का परिचायक है। जो अल्पमेधावी जन जैन न्याय के उन विशाल ग्रन्थों में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, उनके लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। यह लघुकाय ग्रन्थ होते हुए भी गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करता है। जैन दर्शन में जो गौरवपूर्ण स्थान तत्त्वार्थसूत्र को प्राप्त हुआ है वही स्थान जैन न्याय ग्रन्थों में परीक्षामुख को प्राप्त हुआ है। परीक्षामुख ग्रन्थ के बिना जैन न्याय के अन्य ग्रन्थों को पढ़ना सम्भव नहीं है। ग्रन्थ का परिमाण एवं प्रतिपाद्य विषय :
परीक्षामुख में छह परिच्छेद हैं और 208 सूत्र हैं। परीक्षामुख का प्रतिपाद्य विषय प्रमाण एवं प्रमाणाभास का वर्णन करना है। प्रथम परिच्छेद में 13 सूत्र हैं। इस परिच्छेद में प्रमाण सामान्य की विवेचना की है। दूसरे परिच्छेद में 12 सूत्रों के माध्यम से प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन किया है। तीसरे परिच्छेद में 97 सूत्र हैं। इस परिच्छेद में परोक्ष प्रमाण का वर्णन किया है। चतुर्थ परिच्छेद में