Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 5
________________ प्रस्तावना रंपरागत प्राकृत व्याकरण का तात्पर्य है व्याकरण संबंधी जो नियम परंपरा से प्राप्त हुए हैं उनकी समीक्षा की गयी है। उपलब्ध प्राकृत साहित्य और प्राकृत शिलालेखों में भाषाका जो स्वरूप मिलता है उसको ध्यान में लेते हुए व्याकरण के अमुक नियमों की समीक्षा की गयी है कि वे कहाँ तक उनपर लाग होते हैं। क्या ये नियम सभी प्राकृत भाषाओं पर समान रूप से लाग होते हैं और अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा के लिए ये नियम कहाँ तक उपयुक्त हैं यह भी चर्चा की गयी है । उदाहरण के तौर पर ध्वनिपरिवर्तन के नियम(1) मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप, दन्त्य नकार का ... णकार में परिवर्तन, मूर्धन्य ळकार का प्रयोग । (2) एक ही कारक की विभक्ति के लिए एक से अधिक प्रत्यय मिलते हैं। क्या वे विभिन्न काल की सभी प्राकृतों के लिए उपयुक्त हैं या नहीं। उनमें से कौन से प्राचीन प्राकृत भाषा के लिए और कौन से उत्तरवर्ती प्राकृत भाषा के लिए उपयुक्त ठहरते हैं । प्राचीन प्राकृत और उत्तरवर्ती प्राकृत भाषामें क्या अन्तर था उसकी व्याकरण ग्रन्थों में विशद एवं विस्तार के साथ चर्चा नहीं की गयी है। क्षेत्रीय प्राकृतों को भी एक दूसरे से अलग करके उन्हे सूक्ष्म रूप में नहीं समझाया गया है। कारण स्पष्ट है कि उस काल के व्याकरणकारों का उद्देश्य ही अलग था। उनका प्रयास भाषा का ऐतिहासिक या तुलनात्मक अध्ययन करने का महीं था, यह तो आधुनिक काल की उपज है। प्राचीन व्याकरणकारों द्वारा तो उपलब्ध प्राकृत साहित्य की कृतियों की भाषाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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