Book Title: Panchstotra Sangrah
Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 12
________________ भक्तामर स्तोत्र : ७ — 1 टीका- - भो सर्वज्ञ ! त्वद्भक्तिरेव बलाप्रसह्य । मां मानतुङ्गाचार्यं । मुखरीकुरुते वाचालयतीत्यर्थः । कथंभूतं मामल्पश्रुतं शास्त्रं यस्य स तम् । पुनः कथंभूतं माम् ? श्रुतवतां पण्डितानां मध्ये । परिहासस्य धाम गृहं हासस्य भाजनं । अजहल्लिंगत्वादेवं । अन्यथा परिहासधामानं पुल्लिंगे भवति । स्वस्योत्साहतां दृष्टान्तेन द्रढयति । किल इति सत्ये । यत्कोकिलो मधौ वसन्ते । मधुरं विरौति ब्रूते । तत् चारवः मनोज्ञा या आम्रकलिका आम्रमञ्जर्यस्तासां निकरः स एव एकहेतुर्यस्य तत् ।। ६ ।। अन्वयार्थ - ( अल्पश्रुतम् ) अल्पज्ञानी अतएव ( श्रुतवताम् ) विद्वानों की ( परिहासधाम ) हँसी के स्थान स्वरूप ( माम् ) मुझको ( त्वद्भक्तिः एव ) आपकी भक्ति ही (बलात्) जबरन ( मुखरीकुरुते ) वाचाल कर रही है। (किल ) निश्चय से ( मधों) वसन्तु ऋतु में (कोकिलः ) कायल ( यत् ) जो ( मधुरम् विरौति ) मीठे शब्द करती है (तत्) वह (आम्रचारुकलिकानिक रैकहेतु) आम की सुन्दर मञ्जरी के समूह के कारण ही करती हैं । भावार्थ - हे भगवन् ! जिस तरह मूर्ख कोयल वसन्त ऋतु में आम्रमञ्जरी के कारण मीठे-मीठे शब्द बोलने लगती है, उसी तरह मैं भी अल्पज्ञानी होता हुआ भी मात्र भक्ति से आपकी स्तुति कर रहा हूँ ।। ६ ।। त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसत्रिबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ।। ७ ।। तेरी किये स्तुति विभो बहु जन्म के भी, होते विनाश सब पाप मनुष्य के { भौरें समान अति श्यामल ज्यों अँधेरा, होता विनाश रवि के करसे निशा का ॥ ७ ॥ टीका - भो नाथ ! त्वत्संस्तवेन कृत्वा । शरीरभाजां प्राणिनां । भवसन्ततिसन्निबद्धं नानाजन्मान्तरनिबद्धं । पापं क्षणात् क्षणमात्रेण । क्षयं

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