Book Title: Panchamrut
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 158
________________ गुरु-भक्ति १४७ उपमन्यु ने स्तुति प्रारम्भ की। अश्विनीकुमार प्रगट हुए एक बहुत ही बढ़िया मालपुआ उसे देते हुए कहाइसे खा लो। उपमन्यु ने नम्रतापूर्ण निवेदन कियामैं गुरुदेव को अर्पण किये बिना नहीं खा सकता। अश्विनीकुमारों ने कहा-तुम्हारे गुरु ने भी पहले हमारी स्तुति की थी और हमने प्रसन्न होकर उन्हें मालपुआ दिया था। वह उन्होंने बड़ी प्रग्रन्नता से खाया। तुम भी इसे खा लो। उपमन्यु ने कहा-आप मुझे क्षमा करें। मैं गुरुजनों का दोष नहीं देख सकता और न सुन ही सकता हूँ। यदि उन्होंने कभी गलती की तो मैं भी उस गलती की पुनरावृत्ति करू यह योग्य नहीं है। मैं गुरु को बिना अर्पण किए कुछ भी नहीं खा सकता। अश्विनीकुमारों ने अत्यधिक प्रसन्न होते हुए कहा-तेरी गुरुभक्ति पर हम अत्यधिक प्रसन्न हैं। तुम्हारी नेत्र-ज्योति पहले से भी अधिक तेज हो जाएगी। और तुम्हारे दाँत भी मुक्ता की तरह चमकने लगेंगे। वे इतने मजबूत हो जायेंगे कि वृद्धावस्था में भी नहीं गिरेंगे। अश्विनीकुमारों ने उपमन्यु को कुए थे बाहर निकाला। उपमन्यु ने महर्षि को नमस्कार किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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