Book Title: Panchamrut
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 156
________________ १४३ नहीं आती ? वे गृहस्थ लोग मन लोग मन में क्या सोचते होंगे ? दूसरे भिक्षुओं को भिक्षा नहीं मिलती होगी । यह सारा पाप तुम्हें लगता है । उपमन्यु ने कहा- गुरुदेव ! अब मैं ऐसा नहीं करूँगा । कुछ दिनों के पश्चात् ऋषि ने पुनः एक दिन उससे पूछा- तुम आजकल क्या भोजन करते हो ? उपमन्यु ने कहा -- इन दिनों मैं केवल गाय का दूध पी लेता हूँ । ऋषि ने डाँटते हुए कहा गायें मेरी हैं । मेरी बिना अनुमति के तुम गायों का दूध कैसे पी सकते हो ? तुमने बड़ा अपराध किया है । अब उपमन्यु ने कहा- गुरुदेव ! मुझे पता नहीं था इसीलिए मैंने दूध पिया है । अब से दूध नहीं पीऊँगा । कुछ दिनों के पश्चात् पुनः ऋषि ने पूछा -अब तुम क्या खाते हो ? उसने बताया - बछड़ों के मुँह से जो फेन गिरता है वह मैं ग्रहण कर लेता हूँ | ――― ऋषि ने कहा -- गोवत्स बड़े ही दयालु होते हैं । वे तुम्हारे लिए अधिक झाग बनाकर गिराते हैं और स्वयं भूखे रह जाते हैं । इसीलिए ऐसा दुष्कृत्य तुम्हें नहीं करना चाहिए । इससे बछड़ों के भूखा रहने का पाप तुम्हें लगता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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