Book Title: Panchamrut
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 161
________________ पंचामृत जाट के पास स्वर्णमुद्राएँ नहीं थीं । वह तो बड़ी कठिनाई से अपना पेट भर रहा था । उसने सोचा- पहला उपाय मैं नहीं कर सकता। दूसरा उपाय ही अच्छा है। उसने अपने पैर में से जूता निकाला और उसी सेठ के सिर पर जमा दिया। जूते के प्रहार से सेठ को अत्यधिक क्रोध आया। उसने अपने अनुचरों से उसे पकड़वा लिया और न्याय के लिए उसे पकड़कर बादशाह के पास ले जाने के लिए प्रस्थित हुआ । मार्ग में ही कोतवाल और राजगणिका ने उसे रोकना चाहा। जाट ने क्रुद्ध होकर उनके सिर पर भी जूते लगा दिये । सेठ तो पहले से ही गुस्से में भरा हुआ था । वे दोनों भी आपे से बाहर हो गए। जाट को लेकर वे तीनों वादशाह के दरबार में पहुँचे । १५० बादशाह ने जाट से अपराध का कारण पूछा जाट ने सही स्थिति बताते हुए बादशाह से कहामेरी इच्छा चिरकाल से आपके दर्शन करने की थी । मैंने सेठ से आपके दर्शन के सम्बन्ध में पूछा । सेठ ने दो उपाय बताये । मैं गरीब आदमी पहला उपाय नहीं कर सकता था । सेठ ने ही मुझे दूसरा उपाय बताया था, अतः मैंने सोचा कि इनसे बढ़कर दूसरा व्यक्ति कौन होगा ? अतः मैंने सेठ के बताये हुए उपाय का प्रयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170