Book Title: Niyamsara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 8
________________ ग्रन्थ एवं ग्रंथकार संपादक की कलम से आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित नियमसार एक अनूठी एवं अपूर्व रचना है। जो भी साधक मोक्ष - मार्ग के पथिक हैं, उनके लिए यह रचना अपरिहार्य है। मोक्ष-मार्ग पर चलने के लिए जो नियम आवश्यकरूप से पाला जाना चाहिए वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - नियम कहा जाता है। यह नियम दुखों को हटानेवाला और अनन्त सुख देनेवाला होने के कारण पूर्णरूप से प्रयुक्त नियम है, इसलिए सिद्ध है, सार है । आचार्य दो दृष्टियों से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की व्याख्या करते हैं - (1) बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि से यह व्यवहारदृष्टि है । (2) अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि से यह निश्चयदृष्टि है । सम्यग्दर्शनः नियमसार (खण्ड-1 1) बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि या व्यवहारदृष्टि से आप्त, आगम और द्रव्यों में श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। जिसके द्वारा समस्त दोष नष्ट कर दिये गये हैं, जो समस्त गुणों से युक्त है वह आप्त होता है (5)। जो केवलज्ञान आदि परम वैभव से युक्त होता है, वह तीर्थंकर (आप्त ) कहा जाता है (6, 7)। आप्त के मुख से निकला हुआ वचन जो पूर्वापर दोषों से मुक्त है, वह आगम कहा गया है। उस आगम के द्वारा कहे गये द्रव्य होते हैं ( 8 ) । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल जो नाना प्रकार की गुणपर्यायों से युक्त हैं, वे द्रव्य कहे गये हैं (9) | (1)

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