Book Title: Niti Vakyamrutam Satikam
Author(s): Somdevsuri, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

Previous | Next

Page 7
________________ अर्थशास्त्रको संक्षिप्त करके लिखा है। अर्थशास्त्र प्रायः गद्यमें है; परन्तु यह श्लोकबद्ध है। यह भी अपने ढंगका अपूर्व और प्रामाणिक ग्रन्थ है और अर्थशास्त्रको समझनेमें इससे बहुत सहायता मिलती है। इसमें भी विशालाक्ष, पुलोमा, यम आदि प्राचीन नीतिग्रन्थकर्ताओंके मतोंका उल्लेख है। कामन्दकके नीतिसारके बाद जहाँ तक हम जानते हैं, यह नीतिवाक्यामृत ग्रन्थ ही ऐसा बना है, जो उक्त दोनों ग्रन्थोंकी श्रेणीमें रक्खा जा सकता है और जिसमें शुद्ध राजनीतिकी चर्चा की गई है। इसका अध्ययन भी कौटिलीय अर्थशास्त्रके समझने में बड़ी भारी सहायता देता है। नीतिवाक्यामृतके कर्ताने भी अपने द्वितीय ग्रन्थमें गुरु, शुक्र, विशालाक्ष, भारद्वाजके नीतिशास्त्रोंका उल्लेख किया है * । मनुके भी बीसों श्लोकोंको उद्धृत किया है + । नीतिवाक्यामृतमें विष्णुगुप्त या चाणक्यका और उनके अर्थशास्त्रका उल्लेख है - । बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, आदिके अभिप्रायोंको भी उन्होंने नीतिवाक्यामृतमें संग्रह किया है जिसका स्पष्टीकरण नीतिवाक्यामृतकी इस संस्कृत : देखो गुजराती प्रेस बम्बईके 'कामन्दकीय नीतिसार' की भूमिका । * "न्यायादवसरमलभमानस्य चिरसेवकसमाजस्य विज्ञप्तय इव नर्मसचिवोक्तयः प्रतिपन्नकामचारव्यवहारेषु स्वैरविहारेषु मम गुरुशुक्रविशालाक्षपरीक्षितपराशरभीमभीष्मभारद्वाजादिप्रणीतनीतिशास्त्रश्रवणसनाथं श्रुतपथमभजन्त । " यशस्तिलकचम्पू आश्वास २, पृ० २३६ + " दूषितोऽपि' चरेद्धर्म यत्र तत्राश्रमे रतः। समं सर्वेषु भूतेषु न लिहं धर्मकारणम् ॥ इति कथमिदमाह वेवस्ततो मनुः ।”—यशस्तिलक आ० ४, पृष्ट १०० । यह श्लोक मनुस्मृति अ० ६ का ६६ वाँ श्लोक है। इसके सिवाय यशस्तिलक आश्वास ४, पृ. ९०-९१--११६ (प्रोक्षितं भक्षयेत् ), ११७ (क्रीत्वा स्वयं ), १२७ (सभी श्लोक), १४९ ( सभी श्लोक ), २८७ (अधीत्य) के पद्य भी मनुस्मृतिमें ज्योंके त्यों मिलते हैं। यद्यपि वहाँ यह नहीं लिखा है कि ये मनुके हैं । 'उक्तं च' रूपमें ही दिये हैं । ४ नीतिवाक्यामृत पृष्ठ० ३६ सूत्र ९, पृ० १०७ सूत्र ४, पृ० १७१ सूत्र १४ आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 466