Book Title: Niti Vakyamrutam Satikam
Author(s): Somdevsuri, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

Previous | Next

Page 5
________________ 1 वात्स्यायन के कामसूत्र में लिखा है कि प्रजापतिने प्रजाके स्थितिप्रबन्धके लिए त्रिवर्गशासन - ( धर्म-अर्थ- कामविषयक महाशास्त्र) बनाया जिसमें एक लाख अध्याय थे । उसमेंके एक एक भागको लेकर मनुने धर्माधिकार, बृहस्पतिने अर्थाधिकार और नन्दीने कामसूत्र, इस प्रकार तीन अधिकार बनाये । इसके बाद इन तीनों विषयोंपर उत्तरोत्तर संक्षिप्त ग्रन्थोंका निर्माण हुआ । पुराणों में भी लिखा है कि प्रजाप्रतिके उक्त एक लाख अध्यायवाले त्रिवर्ग - शासनको नारद, इन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, विशालाक्ष, भीष्म, पराशर, मनु, अन्यान्य महर्षि और विष्णुगुप्त ( चाणक्य ) ने संक्षिप्त करके पृथक् पृथक् ग्रन्थोंकी रचना की +1 परन्तु इस समय उक्त सब साहित्य प्रायः नष्ट हो गया है । कामपुरुषार्थ पर वात्स्यायनका कामसूत्र, अर्थपुरुषार्थ पर विष्णुगुप्त या चाणक्यका अर्थशास्त्र और धर्मपुरुषार्थ पर मनुके धर्म-शास्त्रका संक्षिप्तसार ' मानव धर्मशास्त्र' - जो कि भृगु नामक आचार्यका संग्रह किया हुआ है और मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है —— उपलब्ध है । उक्त ग्रन्थोंमेंसे राजनीतिका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'कौटिलीय अर्थशास्त्र ' अभी १३-१४ वर्ष पहले ही उपलब्ध हुआ है और उसे मैसूरकी यूनीवर्सिटीने प्रकाशित किया है । यह अबसे लगभग २२०० वर्ष पहले लिखा गया था । सुप्रसिद्ध * "प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य साधनमध्यायानां शतसहस्रेणाग्रे प्रोवाच । तस्यैकदेशिकं मनुः स्वायंभुवो धर्माधिकारकं पृथक् चकार । बृहस्पतिरर्थाधिकारम् । नन्दी सहस्रेणाध्यायानां पृथक्कामसूत्रं चकार ।" - कामसूत्र अ० १। + ब्रह्माध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजं । तन्नारदेन शक्रेण गुरुणा भार्गवेण च ॥ भारद्वाजविशालाक्षभीष्मपाराशरैस्तथा । संक्षिप्तं मनुना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः ॥ प्रजानामायुषो ह्रासं विज्ञाय च महात्मना । संक्षिप्तं मनुना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः ॥ प्रजानामायुषो ह्रासं विज्ञाय च महात्मना । संक्षिप्तं विष्णुगुप्तेन नृपाणामर्थसिद्धये ॥ ये श्लोक हमने गुजरातीटीकासहित कामन्दकीय नीतिसारकी भूमिका परसे उद्धृत किये हैं; परन्तु उससे यह नहीं मालूम हो सका कि ये किस पुराणके हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 466